tag:blogger.com,1999:blog-14014677212220863372024-03-19T05:37:00.875-07:00Bhagwan Shree RajneeshOsho Lover's PlaceNarendrahttp://www.blogger.com/profile/02971099777544416293noreply@blogger.comBlogger589125tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-2030487808398945922024-01-04T16:52:00.013-08:002024-01-04T16:52:00.137-08:00जहां लालच है, वहां चित्त अशांत है - ओशो <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqJgKgCuUGPxBHHdzbRt7O3d4Aut9x65thol4rY52HQsfjqq0CmBqFi41n9TcIBNztpxBnAowRr0orycjazTJGbzXWeEqhByqR2iUIsS-d3gkVxCYUHxYbZQpC9zuX0APsFGaU6owoVy7NYNqadv55eB6Q-3GEiEdy8_-euk0DXnX5aPCgA_FxSc1Qfw/s1024/Osho%20Rajneesh%20(212).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Where-there-is-greed-there-is-a-restless-mind-Osho" border="0" data-original-height="687" data-original-width="1024" height="430" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqJgKgCuUGPxBHHdzbRt7O3d4Aut9x65thol4rY52HQsfjqq0CmBqFi41n9TcIBNztpxBnAowRr0orycjazTJGbzXWeEqhByqR2iUIsS-d3gkVxCYUHxYbZQpC9zuX0APsFGaU6owoVy7NYNqadv55eB6Q-3GEiEdy8_-euk0DXnX5aPCgA_FxSc1Qfw/w640-h430/Osho%20Rajneesh%20(212).jpg" title="Where there is greed, there is a restless mind - Osho" width="640" /></a></div> <br /><p></p><p><br /></p><h1 style="text-align: center;">जहां लालच है, वहां चित्त अशांत है - ओशो </h1><p><br /></p><p>लालच से भरा हुआ चित्त ही अशांत होता है। जहां लालच है, वहां चित्त अशांत है । और जब तक चित्त अशांत है त तक भगवान से क्या संबंध हो सकता है ? लालच का मतलब क्या है? लालच का मतलब यह है कि जो मैं हूं, उससे तृप्ति नहीं; कुछ और होना चाहिए । फिर चाहे यह कुछ और होना धन का हो, स्वास्थ्य का हो, यश का हो, आनंद का हो, भगवान का हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता ।</p><p>लालच का मतलब हैः एक टेंशन, एक तनाव। जो नहीं वह नहीं, जो होना चाहिए वह हो । और जो मैं हूं वह अभी हूं और जो होना चाहिए वह कल होगा । तो कल के लिए मैं खींचा हुआ हूं, तना हुआ हूं। यह तना हुआ चित्त ही लालच से भरा हुआ चित्त है। इसलिए सब तरह की ग्रीड, सब तरह का लोभ अशांति पैदा करेगा। और जहां अशांति है वहां भगवत्-प्राप्ति कैसे ? अशांत चित्त का भगवान से संबंधित होने का कोई उपाय ही नहीं है। अशांति ही तो बाधा है। फिर हम पूछते हैं कि कोई लालच? क्योंकि हमारा मन तो लालच को ही समझता है, एक ही भाषा समझता है, वह है लालच की भाषा। धन के लिए इसलिए दौड़ते हैं, यश के लिए इसलिए दौड़ते हैं। फिर इस सब से ऊब जाते हैं तो हम कहते हैं भगवान के लिए कैसे दौड़ें?</p><p>यह थोड़ा समझ लेना चाहिए कि उसके लिए दौड़ना तो संभव है जो हमसे दूर है, लेकिन जो हमारे भीतर ही हो उसके लिए दौड़ना असंभव है। और अगर दौड़े तो चुक जाएंगे।</p><p><b><i> - ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-40397151402613785432023-12-30T17:47:00.005-08:002023-12-30T17:47:00.128-08:00 ध्यान है भीतर झांकना - ओशो <h1 style="text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh56cBKu21Pspn19vmp0qg70TtJFlLUytghfK25kcRIwjIZRnsaUR8HmVI0Ad-tVD6gWvd9j5uEsReoXpI-c8lz57pZmvt0SwQI-aPP5ngBC-oHBwP_P4k6ieY9XM6NYRjIWGQ-xoP3M5UAzG63Sh3lDBImM4StBtsRlHLTvzmm3NFh5GyL7yWqkQVfMQ/s635/Osho%20In%20Poona%20(9).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Meditation-is-looking-within-Osho" border="0" data-original-height="635" data-original-width="424" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh56cBKu21Pspn19vmp0qg70TtJFlLUytghfK25kcRIwjIZRnsaUR8HmVI0Ad-tVD6gWvd9j5uEsReoXpI-c8lz57pZmvt0SwQI-aPP5ngBC-oHBwP_P4k6ieY9XM6NYRjIWGQ-xoP3M5UAzG63Sh3lDBImM4StBtsRlHLTvzmm3NFh5GyL7yWqkQVfMQ/w428-h640/Osho%20In%20Poona%20(9).jpg" title="Meditation is looking within - Osho" width="428" /></a></div><br /> </h1><h1 style="text-align: center;">ध्यान है भीतर झांकना - ओशो </h1><p>बीज को स्वयं की संभावनाओं का कोई भी पता नहीं होता है। ऐसा ही मनुष्य भी है। उसे भी पता नहीं है कि वह क्या है क्या हो सकता है। लेकिन, बीज शायद स्वयं के भीतर झांक भी नहीं सकता है। पर मनुष्य तो झांक सकता है। यह झांकना ही ध्यान है। स्वयं के पूर्ण सत्य को अभी और यहीं, हियर एंड नाउ जानना ही ध्यान है। ध्यान में उतरें— गहरे और गहरे। गहराई के दर्पण में संभावनाओं का पूर्ण प्रतिफलन उपलब्ध हो जाता है। और जो हो सकता है, वह होना शुरू हो जाता है। जो संभव है, उसकी प्रतीति ही उसे वास्तविक बनाने लगती है। बीज जैसे ही संभावनाओं के स्वप्नों से आंदोलित होता है, वैसे ही अंकुरित होने लगता है। शक्ति, समय और संकल्प सभी ध्यान को समर्पित कर दें। क्योंकि ध्यान ही वह द्वार हीन द्वार है जो कि स्वयं को ही स्वयं से परिचित कराता है।</p><p><b><i>- ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-7406287219504575952023-12-28T16:53:00.012-08:002023-12-28T16:53:00.125-08:00हम सब वहीं खड़े हुए हैं, जहां से हमें कहीं भी जाना नहीं हैं - ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgomE2Ggfw5nH8Ztom-urRy98um2NfvzG512KENfQvVPHfAQFONlcVTiKdGCoDQTpQKNC0ohfX6g5X3PPs-egHB_6-wyO5VgfQMYWa8GsL2mpeSGL_y39QQ9pmqiJP7xo0N6iEbSxsoNuAuCNuMOwhKOpHQWBiTflkJcWlCkcbDpFYvez8m7Zaq6a2rOg/s1024/Osho%20Rajneesh%20(211).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="We-are-all-standing-where-we-have-nowhere-to-go-Osho" border="0" data-original-height="684" data-original-width="1024" height="428" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgomE2Ggfw5nH8Ztom-urRy98um2NfvzG512KENfQvVPHfAQFONlcVTiKdGCoDQTpQKNC0ohfX6g5X3PPs-egHB_6-wyO5VgfQMYWa8GsL2mpeSGL_y39QQ9pmqiJP7xo0N6iEbSxsoNuAuCNuMOwhKOpHQWBiTflkJcWlCkcbDpFYvez8m7Zaq6a2rOg/w640-h428/Osho%20Rajneesh%20(211).jpg" title="We are all standing where we have nowhere to go - Osho" width="640" /></a></div><br /><p></p><p><br /></p><h1 style="text-align: center;">हम सब वहीं खड़े हुए हैं, जहां से हमें कहीं भी जाना नहीं हैं - ओशो </h1><p><br /></p><p>मैंने सुना है, एक आदमी ने शराब पी ली थी और वह रात बेहोश हो गया। आदत के वश अपने घर चला आया, पैर चले आए घर लेकिन बेहोश था घर पहचान नहीं सका। सीढ़ियों पर खड़े होकर पास-पड़ोस के लोगों से पूछने लगा कि मैं अपना घर भूल गया हूं, मेरा घर कहां है मुझे बता दो ? लोगों ने कहा, यही तुम्हारा घर है। उसने कहा, मुझे भरमाओ मत, मुझे मेरे घर जाना है, मेरी बूढ़ी मां मेरा रास्ता देखती होगी। और कोई कृपा करो मुझे मेरे घर पहुंचा दो । शोरगुल सुन कर उसकी बूढ़ी मां भी उठ आई, दरवाजा खोल कर उसने देखा, उसका बेटा चिल्ला रहा है, रो रहा है कि मुझे मेरे घर पहुंचा दो । उसने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा, बेटा, यह तेरा घर है और मैं तेरी मां हूं।</p><p>उसने कहा, हे बुढ़िया, तेरे ही जैसी मेरी बूढ़ी मां है वह मेरा रास्ता देखती होगी। मुझे मेरे घर का रास्ता बता दो। पर ये सब लोग हंस रहे हैं, कोई मुझे घर का रास्ता नहीं बताता । मैं कहा जाऊं? मैं कैसे अपने घर को पाऊं ?</p><p>तब एक आदमी ने, जो उसके साथ शराब पी कर लौटा था, उसने कहा, ठहर, मैं बैलगाड़ी ले आता हूं, तुझे तेरे घर पहुंचा देता हूं। तो उस भीड़ में से लोगों ने कहा कि पागल इसकी बैलगाड़ी में मत बैठ जाना, नहीं तो घर से और दूर निकल जाएगा; क्योंकि तू घर पर ही खड़ा हुआ है। तुझे कहीं भी नहीं जाना है सिर्फ तुझे जागना है, तुझे कहीं जाना नहीं है सिर्फ जागना है, सिर्फ होश में आना है और तुझे पता चल जाएगा कि तू अपने घर पर खड़ा है। और किसी की बैलगाड़ी में मत बैठ जाना, नहीं तो जितना, जितना खोज पर जाएगा उतना ही दूर निकल जाएगा।</p><p>हम सब वहीं खड़े हुए हैं, जहां से हमें कहीं भी जाना नहीं हैं। लेकिन हमारा चित्त एक ही तरह की भाषा समझता है जाने की, दौड़ने की, लालच की, पाने की, खोज की, उपलब्धि की। तो वह जो हमारा चित्त एक तरह की भाषा समझता है...अब आप पूछते हैं कि गृहस्थ, असल में अगर ठीक से समझें, तो जो पाने की, खोजने की, पहुंचने की, दौड़ने की, लोभ की भाषा समझता है—ऐसे चित्त का नाम ही गृहस्थ है। और गृहस्थ का कोई मतलब नहीं होता।</p><p><b><i> - ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-39545779837221275302023-12-23T17:48:00.005-08:002023-12-23T17:48:00.125-08:00 ध्यान है अमृत—ध्यान है जीवन - ओशो <h1 style="text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjDlJdWHYSStBZcphOZ4TPu88gv8E0pOIfHw4zVfoLdQzfNkFc0YYBSIRG7K6JS-WwLt3SoFLP6zoo6lr7CbKsfn0zsMLmlCRDYwARLnvBiPJaEQTeXsGcKF_39cT42fqHriaTE3GJoITzbrzQvAViacC7eiFMrWy_GgNH80lmsJAIZ04pV7oq-Kswp8Q/s659/Osho%20In%20Greese%20(64).JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Meditation-is-nectar-meditation-is-life-Osho" border="0" data-original-height="446" data-original-width="659" height="434" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjDlJdWHYSStBZcphOZ4TPu88gv8E0pOIfHw4zVfoLdQzfNkFc0YYBSIRG7K6JS-WwLt3SoFLP6zoo6lr7CbKsfn0zsMLmlCRDYwARLnvBiPJaEQTeXsGcKF_39cT42fqHriaTE3GJoITzbrzQvAViacC7eiFMrWy_GgNH80lmsJAIZ04pV7oq-Kswp8Q/w640-h434/Osho%20In%20Greese%20(64).JPG" title="Meditation is nectar—meditation is life - Osho" width="640" /></a></div><br /> </h1><h1 style="text-align: center;">ध्यान है अमृत—ध्यान है जीवन - ओशो </h1><p>विवेक ही अंततः श्रद्धा के द्वार खोलता है। विवेकहीन श्रद्धा श्रद्धा नहीं, मात्र आत्म-प्रवंचना है। ध्यान से विवेक जगेगा। वैसे ही जैसे सूर्य के आगमन से भोर में जगत जाग उठता है। ध्यान पर श्रम करें। क्योंकि अंततः शेष सब श्रम समय के मरुस्थल में कहां खो जाता है, पता ही नहीं पड़ता है। हाथ में बचती है केवल ध्यान की संपदा। और मृत्यु भी उसे नहीं छीन पाती है। क्योंकि मृत्यु का वश काल, टाइम के बाहर नहीं है। इसलिए तो मृत्यु को काल कहते हैं। ध्यान ले जाता है कालातीत में। समय और स्थान, स्पेस के बाहर। अर्थात अमृत में। काल, टाइम है विष। क्योंकि काल है जन्म; काल है मृत्यु। ध्यान है अमृत। क्योंकि ध्यान है जीवन । ध्यान पर श्रम, जीवन पर ही श्रम है। ध्यान की खोज, जीवन की ही खोज है।</p><p><b><i>- ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-91016699286125856432023-12-21T16:53:00.012-08:002023-12-21T16:53:00.126-08:00सब खोज व्यर्थ है - ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjmhYAp4vjZVI7IpvscQkSxoHyTPWuvEXRDzZjDUUMEo2zw41bNso2rVIX28HLc8WjA41egLzodq0976Lq2lJH39QTAAaB4C74Eh1xJdGOl_zm5BqZCrdq3kTxXGuCpdfg3pxqWV2sF9WIGMrXNzvBjPsmHSfg4G0qiZmvpPQoljerCkpltnNGKQ1debA/s1024/Osho%20Rajneesh%20(210).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="All-search-is-futile-Osho" border="0" data-original-height="682" data-original-width="1024" height="426" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjmhYAp4vjZVI7IpvscQkSxoHyTPWuvEXRDzZjDUUMEo2zw41bNso2rVIX28HLc8WjA41egLzodq0976Lq2lJH39QTAAaB4C74Eh1xJdGOl_zm5BqZCrdq3kTxXGuCpdfg3pxqWV2sF9WIGMrXNzvBjPsmHSfg4G0qiZmvpPQoljerCkpltnNGKQ1debA/w640-h426/Osho%20Rajneesh%20(210).jpg" title="All search is futile - Osho" width="640" /></a></div><br /><p></p><p><br /></p><h1 style="text-align: center;">सब खोज व्यर्थ है - ओशो </h1><p><br /></p><p>लोभ करने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि जिसका हम लोभ करें वह हमारे भीतर ही बैठा हुआ है । और यदि हमने लोभ किया तो हम भटक जाएंगे भीतर से कहीं और चले जाएंगे। और वही लोभ और लालच हमें भटका रहा है। अक्सर तो यही होता है कि एक आदमी गृहस्थ है और संन्यासी हो जाता है, तो लोभ के कारण है। वह कहता है, गृहस्थी में नहीं मिलता आनंद, संन्यस्त होने से आनंद मिल जाएगा। वह कहता है, गृहस्थी में नहीं मिलता परमात्मा और मैं परमात्मा को पाए बिना कैसे रह सकता हूं, तो मैं संन्यासी होता हूं।</p><p>लेकिन अभी उसकी जो भाषा है वह गृहस्थी की है। अभी उसे पता भी नहीं चला कि वह गृहस्थी के जो फ्रेमवर्क है, गृहस्थी के दिमाग का, उसके बाहर नहीं हो रहा है। वह उसी के भीतर चल रहा है। अब वह नये उपाय में लग जाएगा – पूजा करेगा, प्रार्थना करेगा, जप करेगा, तप करेगा। ये सब प्रयत्न होंगे पाने के, लेकिन जो पाया ही हुआ है, उसे पाने का कोई भी प्रयत्न उचित नहीं है, अनुचित है।</p><p>उसे जानना है; पाना नहीं है। इस फर्क को समझ लेना चाहिए कि उसे सिर्फ जानना है पाना नहीं है। वह पाया हुआ है। ऐसे ही जैसे हमारी जेब में कुछ चीज पड़ी है और हम भूल गए हैं। और अब उसे खोजते फिर रहे हैं, खोजते फिर रहे हैं, वह नहीं मिलती क्योंकि वह जेब में पड़ी है।</p><p>सत्य की, प्रभु की, आनंद की, सब खोज व्यर्थ है। असल में मत खोजिए, एक क्षण को भी कुछ मत खोजिए। एक क्षण को भी अगर सारी खोज रुक जाए, सारा लोभ रुक जाए, तो चित्त का आवागमन रुक जाएगा।</p><p><b><i> - ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-51171266149774920252023-12-16T17:48:00.006-08:002023-12-16T17:48:00.135-08:00 ध्यान की अनुपस्थिति है मन - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjdpODkgzphoUOGQuzE88m0ceLGWq0khYpizJJHhwLLbZVTox18F8i0bDo0KGUb1UMUSHCL6-9fC_isb813X4XLaLv7UepQdgsGjmDvi8FHeYDACuhyesrBhNqfMrKVkxpFSAQlv_0TLRZT7PvnJCohKORykCCJXk6N4zIRva50RiRxbAX38jGTdGCL_w/s659/Osho%20In%20Greese%20(63).JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="The-absence-of-meditation-is-the-mind-Osho" border="0" data-original-height="442" data-original-width="659" height="430" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjdpODkgzphoUOGQuzE88m0ceLGWq0khYpizJJHhwLLbZVTox18F8i0bDo0KGUb1UMUSHCL6-9fC_isb813X4XLaLv7UepQdgsGjmDvi8FHeYDACuhyesrBhNqfMrKVkxpFSAQlv_0TLRZT7PvnJCohKORykCCJXk6N4zIRva50RiRxbAX38jGTdGCL_w/w640-h430/Osho%20In%20Greese%20(63).JPG" title="The absence of meditation is the mind - Osho" width="640" /></a></div><br /><h1 style="text-align: center;"><br /></h1><h1 style="text-align: center;">ध्यान की अनुपस्थिति है मन - ओशो </h1><p>ध्यान के लिए श्रम करो। मन की सब समस्याएं तिरोहित हो जाएंगी। असल में तो मन ही समस्या है, माइंड इज़ दि प्रॉब्लम। शेष सारी समस्याएं तो मन की प्रतिध्वनियां मात्र हैं। एक-एक समस्या से अलग-अलग लड़ने से कुछ भी न होगा। प्रतिध्वनियों से संघर्ष व्यर्थ है। पराजय के अतिरिक्त उसका और कोई परिणाम नहीं है। शाखाओं को मत काटो। क्योंकि एक शाखा के स्थान पर चार शाखाएं पैदा हो जाएंगी। शाखाओं के काटने से वृक्ष और भी बढ़ता है। और समस्याएं शाखाएं हैं। काटना ही है तो जड़ को काटो। क्योंकि जड़ के कटने से शाखाएं अपने आप ही विदा हो जाती और मन है जड़। इस जड़ को काटो ध्यान से। मन है समस्या। ध्यान है समाधान। मन में समाधान नहीं है। ध्यान में समस्या नहीं है। क्योंकि मन में ध्यान नहीं है। क्योंकि ध्यान में मन नहीं है। ध्यान की अनुपस्थिति है मन। मन का अभाव है ध्यान। इसलिए कहता हूं : ध्यान के लिए श्रम करो।</p><p><b><i>- ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-92042858135724356772023-12-14T16:54:00.011-08:002023-12-14T16:54:00.127-08:00 जिसकी आप बात कर रहे हैं भगवत् - प्राप्ति की, वह है अभी, यहीं, इसी वक्त - ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZJsejcpLVWfApRLOtpiulLOQqYBpDs8gI47oVbfgBpRlcRPIWCONkzw5AqC9RNtEFiwbnCq086HI0gIdxEGkY9mjuVgSy-I0Lv7YKzvKFd2-ODXcl4cxobOUk34vvWaMndfK0cBuF5XUyEWRrVOQVZuRhSUgok3Eq8xqxvC7eHbo9xqNbxxmVtgIP9A/s1024/Osho%20Rajneesh%20(209).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="What-you-are-talking-about-is-God-realization-that-is-now-right-here-at-this-very-moment-Osho" border="0" data-original-height="681" data-original-width="1024" height="426" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZJsejcpLVWfApRLOtpiulLOQqYBpDs8gI47oVbfgBpRlcRPIWCONkzw5AqC9RNtEFiwbnCq086HI0gIdxEGkY9mjuVgSy-I0Lv7YKzvKFd2-ODXcl4cxobOUk34vvWaMndfK0cBuF5XUyEWRrVOQVZuRhSUgok3Eq8xqxvC7eHbo9xqNbxxmVtgIP9A/w640-h426/Osho%20Rajneesh%20(209).jpg" title="What you are talking about is God-realization, that is now, right here, at this very moment - Osho" width="640" /></a></div><br /><p></p><h1 style="text-align: left;"><div style="text-align: center;"> </div><div style="text-align: center;">जिसकी आप बात कर रहे हैं भगवत् - प्राप्ति की, वह है अभी, यहीं, इसी वक्त - ओशो </div></h1><p><br /></p><p>मैंने सुनी है एक कहानी कि भगवान ने सारी दुनिया बनाई है और जब आदमी को बनाया तो वह बहुत परेशान हो गया। क्योंकि आदमी को जैसे ही बनाया— आदमी हजार शिकायतें, हजार सवाल, हजार समस्याएं लेकर पहुंचने लगा। उसने देवताओं से कहा कि यह तो मुझे सोने भी नहीं देगा, जीने भी नहीं देगा। ऐसा कुछ बताओ तरकीब कि मैं आदमी से बच सकूं। तो किसी देवता ने कहा, हिमालय पर बैठ जाइए। उसने कहा, कितनी देर हम बचेंगे हिमालय पर, आज नहीं कल कोई हिलेरी कोई तेनसिंह चढ़ जाएगा। किसी ने कहा, चांद पर बैठ जाइए। तो उसने कहा, वह भी बहुत दिन दूर नहीं कि आदमी वहां पहुंच जाएगा। दूर के सारे सुझाए लेकिन उन्होंने कहा कि नहीं, वे कहीं काम नहीं करेगा। कुछ ऐसी जगह बताओ जहां आदमी पहुंचे ही नहीं ।</p><p>तब एक बूढ़े देवता ने कहा, फिर एक ही जगह है, आप आदमी के भीतर बैठ जाइए। और वहां वह कभी नहीं जाएगा। चांद पर पहुंच जाएगा, लेकिन वहां कभी नहीं आएगा । तो भगवान इसके लिए राजी हो गए, यह बात उसकी समझ में आ गई। यह तो कहानी है। लेकिन सच्चाई भी यही है। लोभ ले जाता है बाहर, लोभ ले जाता है दूर, लोभ ले जाता है भविष्य में। और जिसकी आप बात कर रहे हैं भगवत् - प्राप्ति की, वह है अभी, यहीं, इसी वक्त, हियर एंड नाउ। न कल, न परसों । भविष्य में नहीं; अभी, इसी क्षण, यहीं, आपके पास ही, आप में ही, आप ही मौजूद हैं।</p><p><b><i> - ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-69121683345789191242023-12-09T17:49:00.005-08:002023-12-09T17:49:00.127-08:00 मन का विसर्जन–साक्षी-भाव से - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRXCoHkFJu4V1f6GIIwudyk9jAuRT2v0UHfs01KNqJIriaHPGuPkC4fOGZI5elQf12cPFjpuKxzyrej7yMo_P7kkVz1L04fy3F-lweR2509DnM2KYrYDzMVTmtumYkfZf0tiafk_3XcR7uEPDAjTH2ldcce989OBqITsHV2PT5TZIKoW-nJS_Drx-a2Q/s672/Osho%20In%20Greese%20(62).JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Immersion-of-the-mind-with-the-spirit-of-witnessing-Osho" border="0" data-original-height="449" data-original-width="672" height="428" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRXCoHkFJu4V1f6GIIwudyk9jAuRT2v0UHfs01KNqJIriaHPGuPkC4fOGZI5elQf12cPFjpuKxzyrej7yMo_P7kkVz1L04fy3F-lweR2509DnM2KYrYDzMVTmtumYkfZf0tiafk_3XcR7uEPDAjTH2ldcce989OBqITsHV2PT5TZIKoW-nJS_Drx-a2Q/w640-h428/Osho%20In%20Greese%20(62).JPG" title="Immersion of the mind – with the spirit of witnessing - Osho" width="640" /></a></div><br /><h1 style="text-align: center;"><br /></h1><h1 style="text-align: center;"> मन का विसर्जन–साक्षी-भाव से - ओशो </h1><p>मन के रहते शांति कहां? क्योंकि वस्तुतः मन ही अशांति है। इसलिए शांति की दिशा में मात्र विचार से, अध्ययन से, मनन से कुछ भी न होगा। विपरीत मन और सबल भी हो सकता है; क्योंकि वे सब मन की ही क्रियाएं हैं। हां, थोड़ी देर को विराम जरूर मिल सकता है, जो कि शांति नहीं, बस अशांति का विस्मरण मात्र है। इस विस्मरण की मादकता से सावधान रहना। शांति चाहिए तो मन को खोना पड़ेगा। मन की अनुपस्थिति ही शांति है। साक्षी-भाव, विटनेसिंग से यही होगा। विचार, कर्म–सभी क्रियाओं के साक्षी बनो। कर्ता न रहो। साक्षी बनो। पल-पल साक्षी होकर जीयो। जो भी करो साक्षी रहो। जैसे कि कोई और कर रहा है और मात्र गवाह रहा हो। फिर धीरे-धीरे मन भोजन न पाने से निर्बल होता जाता है। कर्ता भाव मन का भोजन है। अहंकार मन का इधन, फ्यूल है। और जिस दिन इधन बिलकुल नहीं मिलता है, उसी दिन मन ऐसे तिरोहित हो जाता है कि जैसे कभी रहा ही न हो।</p><p><b><i>- ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-46068945053322723502023-12-07T16:55:00.012-08:002023-12-07T16:55:00.127-08:00अस्तित्व तो सदा वर्तमान है - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8yJytV7ypGVwvSM5eAo00LLLYEJtLC9KrNO2ikrEI_7ShaZX_B5Fsjh8Zj_vjRKeoM7CN0cIo-aOYnCw43AEBUlS-aAdHv4-ArHWZHNfqzzESDZZC9aJw1TDE8hulNC59ga4BF1_fVPGVQy7DUJd67nDGP4kga9CeVYneG8rL1WlGBigqOnayQfI3iA/s1024/Osho%20Rajneesh%20(208).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Existence-is-always-present-Osho" border="0" data-original-height="682" data-original-width="1024" height="426" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8yJytV7ypGVwvSM5eAo00LLLYEJtLC9KrNO2ikrEI_7ShaZX_B5Fsjh8Zj_vjRKeoM7CN0cIo-aOYnCw43AEBUlS-aAdHv4-ArHWZHNfqzzESDZZC9aJw1TDE8hulNC59ga4BF1_fVPGVQy7DUJd67nDGP4kga9CeVYneG8rL1WlGBigqOnayQfI3iA/w640-h426/Osho%20Rajneesh%20(208).jpg" title="Existence is always present - Osho" width="640" /></a></div><br /><p><br /></p><h1 style="text-align: center;">अस्तित्व तो सदा वर्तमान है - ओशो </h1><p><br /></p><p>हम आमतौर से पूछते हैं, परमात्मा को कैसे पाएं ? वह प्रश्न ही गलत है। पूछना चाहिए कि हमने परमात्मा को कैसे खोया ? हाउ वी हैव लास्ट हिम? कैसे खो दिए हैं हम ? क्योंकि परमात्मा को खोने का मतलब अपने को खोना! हमने अपने को कैसे खो दिया है? हम अपने को कैसे भूल गए हैं? यह कैसे संभव हो गया! इंपासिबल! यह असंभव कैसे संभव हुआ है कि हम अपने को ही नहीं जान पा रहे हैं कि कौन हैं ! इससे ज्यादा असंभव कोई बात हो सकती है!</p><p>मैं हूं, मैं जानता भी हूं कि हूं और फिर भी नहीं जानता कि कौन हूं! बड़ी अदभुत घटना घट गई है ! अगर दुनिया में कोई मिरेकल कोई चमत्कार घटित हुआ है, तो वह चमत्कार यह नहीं है कि किसी ने ताबीज बना दिया हवा से और किसी ने राख गिरा दी है हवा से कि किसी ने किसी अंधे की आंखें ठीक कर दीं। इस जगत में जो सबसे बड़ा चमत्कार हो गया, वह यह कि हम हैं, जानते हैं कि हैं और पता नहीं कि कौन हैं और पता नहीं कहां थे और पता नहीं कहां के लिए जा रहे हैं? यह एकमात्र मिरेकल है। पर यह कैसे संभव हुआ यह समझना चाहिए। और अगर यह हमारी समझ में आ जाए कि यह कैसे संभव हुआ है, तो कठिन नहीं है यह बात कि हम मुट्ठी बांधना बंद कर दें और मुट्ठी खुल जाए।</p><p>कुछ तरकीबें हैं मन की जिनसे यह संभव हुआ है। पहली तो मन की तरकीब यह है कि वह आपको कभी वर्तमान में नहीं जीने देता, जीने ही नहीं देता ! आप कभी वर्तमान में होते ही नहीं! यहां और अभी आप कभी नहीं होते। या तो पीछे अतीत में होते हैं, जो जा चुका है, जो अब नहीं है या भविष्य में होते हैं, जो अभी आया नहीं और नहीं है। जो है, जो अभी है इसी वक्त, उसमें आप कभी होते ही नहीं।</p><p>तो मन की एक ट्रिक है कि वह आपको वर्तमान से चुकाता रहता है, और वर्तमान से अगर आप चुक गए तो दरवाजा बंद हो गया, क्योंकि वर्तमान दरवाजा है— सत्य का, अस्तित्व का, एक्झिस्टेंस का । अगर इसे ठीक से समझ लें कि अस्तित्व में न तो अतीत है कुछ और न भविष्य है कुछ। अस्तित्व तो सदा वर्तमान है। इसलिए आप परमात्मा के लिए पास्ट टेंस का या फ्यूचर टेंस का उपयोग नहीं कर सकते। आप यह नहीं कह सकते गॉड वाज, नहीं कह सकते ईश्वर था, आप यह भी नहीं कह सकते गॉड विल बी कि ईश्वर होगा, आप जब भी कहेंगे तब गॉड इज़ ईश्वर के लिए अतीत और भविष्य का उपयोग नहीं हो सकता, वह है। सच बात यह है कि है कहना भी परमात्मा को गलत है, क्योंकि हम है उस चीज को कहते हैं जो नहीं है भी हो सकती है। हम कहते हैं : तख्त है, टेबल है, क्योंकि कल टेबल नहीं हो सकती है, कल नहीं थी। जो कल नहीं थी, कल नहीं हो सकती है, उसको है कहने का कोई मतलब है? परमात्मा को है कहना भी मुश्किल है क्योंकि वह है पन है। गॉड इज़ ऐसा कहना गलत है, इज़नेस वह जो होना है वही परमात्मा है और वह सदा वर्तमान है, वह न कभी अतीत है, न कभी भविष्य । और हम, हम कभी वर्तमान में नहीं हैं, द्वार बंद हो गया।</p><div><b><i> - ओशो </i></b></div>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-14717847432254946672023-12-02T17:49:00.005-08:002023-12-02T17:49:00.133-08:00सत्योपलब्धि के मार्ग अनंत हैं - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhGdH1FrSK_dqkxHTimu7RBLCQ2F-oauUg1CG0VhNy2GlcG7SId_cScNdsN4ESNUBQiNaSKSfmpqub2VpVIm4stNlnXAVovDfS9eNss9dcWeG0_BQoOSP06prUpr2MBD6iQ_jMeYS95FS69m5u88R2-u-cRZV1-rMpKb0OKam05lOnYjVfCyPV-kraKbw/s682/Osho%20In%20Greese%20(61).JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="The-paths-to-the-attainment-of-truth-are-infinite-Osho" border="0" data-original-height="455" data-original-width="682" height="426" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhGdH1FrSK_dqkxHTimu7RBLCQ2F-oauUg1CG0VhNy2GlcG7SId_cScNdsN4ESNUBQiNaSKSfmpqub2VpVIm4stNlnXAVovDfS9eNss9dcWeG0_BQoOSP06prUpr2MBD6iQ_jMeYS95FS69m5u88R2-u-cRZV1-rMpKb0OKam05lOnYjVfCyPV-kraKbw/w640-h426/Osho%20In%20Greese%20(61).JPG" title="The paths to the attainment of truth are infinite - Osho" width="640" /></a></div><br /><h1 style="text-align: center;"><br /></h1><h1 style="text-align: center;"> सत्योपलब्धि के मार्ग अनंत हैं - ओशो </h1><p><span> </span><span> </span>सत्योपलब्धि के मार्ग अनंत हैं। और व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है कि उसके लिए क्या उपयुक्त है। और इसलिए जो एक के लिए सही है, वही दूसरे के लिए बिलकुल ही गलत हो सकता है। इसीलिए दूसरे के साथ धैर्य की आवश्यकता है। और स्वयं को सबके लिए मापदंड मानना खतरनाक है। मैं अनेकांत या स्यादवाद में इसी सत्य की अभिव्यक्ति देखता हूं। विचार-प्रधान व्यक्ति के लिए जो मार्ग है, वह भाव-प्रधान व्यक्ति के लिए नहीं है। और बहिर्मुखी, एक्सट्रोवर्ट के लिए जो द्वार है, वह अंतर्मुखी, इनट्रोवट के लिए दीवार है। ज्ञान का यात्री अंततः ध्यान की नाव बनाता है। प्रेम का यात्री प्रार्थना को। ध्यान और प्रार्थना पहुंचते हैं एक ही मंजिल पर। लेकिन उनके यात्रा-पथ नितांत भिन्न हैं। और उचित यही है कि अपना यात्रा-पथ चुनें, और दूसरे की चिंता न करें। क्योंकि स्वयं को ही समझना जब इतना कठिन है, तो दूसरे को समझना तो करीब-करीब असंभव है।</p><p><b><i>- ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-4355205191935333402023-11-30T16:56:00.014-08:002023-11-30T16:56:00.136-08:00ऊबना - ओशो <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhj7-zwNOekwaUKD19x21p6al5gonHR1dG9cROsFprtWyqK_gXZhLefCVKKM1ET9T-sT8c4TJkkT79v0pdg676lzRuP3RHQ0oXIqnEbI5rE1wcrygtAKVC8wIdpvUDhyqk2Jp1dt1QRynkmf5N963LvPtab98YzEgOKBuoxXktbRbgA6kp32oTSwuoTYw/s1024/Osho%20Rajneesh%20(207).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="bored - osho" border="0" data-original-height="678" data-original-width="1024" height="424" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhj7-zwNOekwaUKD19x21p6al5gonHR1dG9cROsFprtWyqK_gXZhLefCVKKM1ET9T-sT8c4TJkkT79v0pdg676lzRuP3RHQ0oXIqnEbI5rE1wcrygtAKVC8wIdpvUDhyqk2Jp1dt1QRynkmf5N963LvPtab98YzEgOKBuoxXktbRbgA6kp32oTSwuoTYw/w640-h424/Osho%20Rajneesh%20(207).jpg" title="bored - osho" width="640" /></a></div> <p></p><br /><p></p><h1 style="text-align: center;">ऊबना - ओशो </h1><p><br /></p><p>मैंने सुनी है एक कहानी कि एक आदमी अंधा आदमी एक बहुत बड़े भवन में कैद कर दिया गया है। हजारों दरवाजे हैं उस भवन में, सब बंद हैं, सिर्फ एक दरवाजा खुला है। और वह अंधा आदमी एक - एक दरवाजे को टटोलते हुआ घूमता है, दरवाजा बंद, दरवाजा बंद, दरवाजा बंद, घूमते, घूमते घूमते उस दरवाजे के पास आता है जो दरवाजा खुला है। लेकिन उसे खुजान चली और उसने सिर खुजाया और वह दरवाजा चुक गया, वह फिर आगे के दरवाजे पर टटोल रहा है, वह फिर बंद है, फिर वहां से घूमता है, घूमता है, घूमता है फिर वहां आता है और फिर थक जाता है । सब दरवाजे बंद हैं, ऊब जाता है और फिर दो-चार दरवाजे नहीं टटोलता फिर वह दरवाजा चुक जाता है।</p><p>लेकिन क्या करेगा अंधा आदमी ? फिर टटोलना शुरू करता है, ऐसी कहानी चलती है कि वह बार-बार उस दरवाजे को चुक जाता है जो खुला है, जहां से वह निकल सकता है, वह चुक जाता है।</p><p>कहानी के सच होने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन हम वर्तमान के दरवाजे को निरंतर चुक जाते हैं। पर वही खुला है सिर्फ, और बड़ा संकरा दरवाजा है। क्योंकि हमारे हाथ में क्षण का हजारवां हिस्सा ही होता है एक बार में, दो हिस्से भी नहीं होते। तो फिर क्षण का एक हिस्सा हमारे हाथ में है वही अस्तित्व है, भारी एक लकीर एग्जिस्टेंस की वही है। और उसे हम चुक जाते हैं, क्योंकि मन या तो पीछे की सोचता रहता है या आगे की सोचता रहता है।</p><p>तो मैं आपको यह कह रहा हूं कि कैसे आप चुक गए? आपसे यह नहीं कह रहा हूं कि कैसे आप पा लेंगे। लेकिन वह कि इस भांति आप चुक गए। उस अंधे आदमी से मैं यह कहूंगा कि तूने खुजाया उसमें तू चुक गया, अब किसी दरवाजे पर खुजाना मत। तू ऊब गया, घबड़ा गया और दो-चार दरवाजे तूने बिना टटोले छोड़ दिए। अब तू मत घबड़ाना, अब मत नहीं तो फिर चुकने का डर संभव हो।</p><p>ऊबना, वर्तमान में होना दरवाजे पर खड़े हो जाना है और ऐसा कभी न हुआ कि जो आदमी वर्तमान में खड़ा हो गया है उस आदमी को परमात्मा से क्षण भर के लिए भी वंचित रहना पड़ा हो, ऐसा कभी हुआ ही नहीं ।</p><p><b><i> - ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-28450945113176448312023-11-25T17:50:00.005-08:002023-11-25T17:50:00.134-08:00 सब मार्ग ध्यान के ही विविध रूप हैं - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjUswe8gVe03NooQN6Etf8TykxlNn960mexzQek6eyPifP5m7i9t5b9VvGeOfSPEnt0cuzEK2TxDoqGul4r-BAUf27mWQp_bxMZAucaMh2I6hXXrrDjoAiBBawNFUNhIJv_0GsneuWnMt7yGkNBfdo-_CReJun5Wx_lnGOSC__gVb2obzpHjc0shAYk7g/s679/Osho%20In%20Greese%20(60).JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="All-paths-are-different-forms-of-meditation-Osho" border="0" data-original-height="679" data-original-width="447" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjUswe8gVe03NooQN6Etf8TykxlNn960mexzQek6eyPifP5m7i9t5b9VvGeOfSPEnt0cuzEK2TxDoqGul4r-BAUf27mWQp_bxMZAucaMh2I6hXXrrDjoAiBBawNFUNhIJv_0GsneuWnMt7yGkNBfdo-_CReJun5Wx_lnGOSC__gVb2obzpHjc0shAYk7g/w422-h640/Osho%20In%20Greese%20(60).JPG" title="All paths are different forms of meditation - Osho" width="422" /></a></div><br /><h1 style="text-align: center;"><br /></h1><h1 style="text-align: center;">सब मार्ग ध्यान के ही विविध रूप हैं - ओशो </h1><p>ध्यान के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। या जो भी मार्ग हैं, वे सब ध्यान, मेडीटेशन के रूप हैं। प्रार्थना भी ध्यान है, पूजा भी, उपासना भी। योग भी ध्यान है, सांख्य भी। ज्ञान भी ध्यान है, भक्ति भी। कर्म भी ध्यान है, संन्यास भी। ध्यान का अर्थ है: चित्त की मौन, निर्विचार, शुद्धावस्था। कैसे पाते हो इस अवस्था को, यह महत्वपूर्ण नहीं है। बस पा लो, यही महत्वपूर्ण है। किस चिकित्सा-पद्धति से स्वस्थ होते हो, यह गौण है। बस स्वस्थ हो जाओ, यही महत्वपूर्ण है।</p><p><b><i>- ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-3576298655636659812023-11-23T16:57:00.010-08:002023-11-23T16:57:00.137-08:00चित्त को वर्तमान में ले आना ही ध्यान है - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjcrAj4gOLdxBdOw3O_aNAK_szN-GVeDH8SiRDq0i9HfAr3-DRJZUOfBfxfZTQgA67iHftQo-mf-YT_n3JVD_psPSpRQcoRxg6iMur8P6_iXATjQA8atC2uUOvfc_OETbj3n74nVoIkfkz2aPXalGdas3mk88SvIludwSz7FwPUTGkZYMPS7m_m5nwJew/s1024/Osho%20Rajneesh%20(205).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Meditation-is-bringing-the-mind-back-to-the-present-Osho" border="0" data-original-height="677" data-original-width="1024" height="424" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjcrAj4gOLdxBdOw3O_aNAK_szN-GVeDH8SiRDq0i9HfAr3-DRJZUOfBfxfZTQgA67iHftQo-mf-YT_n3JVD_psPSpRQcoRxg6iMur8P6_iXATjQA8atC2uUOvfc_OETbj3n74nVoIkfkz2aPXalGdas3mk88SvIludwSz7FwPUTGkZYMPS7m_m5nwJew/w640-h424/Osho%20Rajneesh%20(205).jpg" title="Meditation is bringing the mind back to the present - Osho" width="640" /></a></div><br /><p><br /></p><h1 style="text-align: center;">चित्त को वर्तमान में ले आना ही ध्यान है - ओशो</h1><p><br /></p><p>चित्त को वर्तमान में ले आना ही ध्यान है, वही मेडिटेशन है, वही समाधि है । और चित्त को वर्तमान से यहां-वहां भटकाए रहना—वही चंचलता है, वही उपद्रव है । और ध्यान में रहे कि हम आखिर हम वर्तमान से चुक क्यों जाते हैं? लोभ चुका देता है, लालच चुका देता है, क्योंकि लोभ हमेशा भविष्य की बातें करता है। लोभ वर्तमान की बात करता ही नहीं, करेगा कैसे? जो भी पाना है वह अभी तो पाया नहीं जा सकता, जो भी पाना है वह कल ही पाया जा सकता है, आगे ही पाया जा सकता है, इसी वक्त पाने का तो कोई उपाय नहीं है, इसलिए लोभ हमेशा भविष्य की भाषा बोलता है।</p><p>लोभ चुका देता है और अहंकार चुका देता है, अहंकार सदा अतीत की भाषा बोलता है— पास्ट, जो पाया, जो मिला, जो किया, जो बनाया वह सब पास्ट में है। अहंकार सदा ही अतीत की भाषा बोलता है कि मैं फलां आदमी का बेटा हूं। क्यों? जो होगा उसका तो पता नहीं है, जो हो चुका है उसी का मैं दावा कर सकता हूं। मेरे पास इतने करोड़ रुपये हैं, होंगे उनका तो दावा नहीं कर सकते आप, जो हो चुका है। मेरी तिजोड़ी इतनी बड़ी और मैं इतनी बड़ी कुर्सी पर रहा हूं, मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं। वह जो समबडी हूं, मैं कुछ हूं, वह हमेशा पास्ट से आता है, वह हमारे अतीत का संग्रह है, जिसको हमने जोड़ कर खड़ा कर लिया है। वह हमारा अहंकार है, अहंकार हमें पीछे ले जाता है, लोभ हमें आगे ले जाता है और गौर से देखें तो लोभ और अहंकार एक ही चीज के दो हिस्से हैं।</p><p>जो लोभ पूरा हो चुका है वह अहंकार बन गया, जो लोभ पूरा होगा वह अहंकार बनेगा। जो लोभ पूरा हो चुका ह अहंकार बन गया, जो लोभ पूरा होगा वह अहंकार बनेगा। जो अहंकार बन गया है वह लोभ है, जिससे आप गुजरे और वह लोभ जो अभी आगे पकड़ रहा है वह भविष्य में बनने वाला अहंकार है, जिससे आप गुजरेंगे।</p><p>समस्त लोभ का संग्रह अहंकार है, वह अतीत में भटकाता है। इसलिए बूढ़ा आदमी होगा तो वह अतीत में भटकता रहेगा, क्योंकि आगे तो मौत है, तो वहां लोभ की गुंजाइश कम है, तो वहां क्या लोभ करिएगा ? तो बूढ़े आदमी का मन हमेशा अतीत में भटकता रहता है, वह बैठा है और सोच रहा है— जवानी जो थी, दिन जो गए, यादें जो हैं भीतर छिपी थीं, वह उनका सोचता रहेगा।</p><p>बूढ़ा आदमी अतीत में सोचता रहेगा, क्योंकि भविष्य में दिखाई पड़ती है मौत। वहां वह देखना भी नहीं चाहता, वह लौट कर पीछे देखता रहता है। बच्चे जवान सदा भविष्य में देखते रहेंगे, अभी उनका अहंकार बना नहीं; बनने की प्रतीक्षा कर रहा है। तो बच्चे और जवान सदा भविष्य में उन्मुख होंगे, फ्यूचर सेंटर्ड होंगे। लोभ अभी बनेगा, बूढ़े आदमी हमेशा पास्ट सेंटर्ड होंगे, बीत गया जो, वे उसी में खोए रहेंगे, उन्हीं स्मृतियों में। क्योंकि बूढ़े ने यात्रा कर ली अहंकार की, बच्चा अभी यात्रा करेगा।</p><p><b><i> - ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-34072564414648433662023-11-18T17:51:00.006-08:002023-11-18T17:51:00.206-08:00जिसे हम सुख कहते हैं , उसका सुख से कोई संबंध नहीं है - ओशो <h1 style="text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRy437n3H-JUEpiUXWw6Zv1S8nyJbWhASvBZp-exj8-TACAs49G3FdL-5Ho5tjlpYS1FrW_RoDHlFek8UUy6lF5jPcFZ3PnHjl0cns6s_UV0Arv7KrUVIP0MGqDxQvuxdGPqEttDG6eOg2fG66oRp9t57Nw9g6OcA13-5_0N2RM10sP8rDJgfHw4IFNA/s661/Osho%20In%20Greese%20(59).JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="What-we-call-happiness-has-nothing-to-do-with-happiness-Osho" border="0" data-original-height="444" data-original-width="661" height="430" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRy437n3H-JUEpiUXWw6Zv1S8nyJbWhASvBZp-exj8-TACAs49G3FdL-5Ho5tjlpYS1FrW_RoDHlFek8UUy6lF5jPcFZ3PnHjl0cns6s_UV0Arv7KrUVIP0MGqDxQvuxdGPqEttDG6eOg2fG66oRp9t57Nw9g6OcA13-5_0N2RM10sP8rDJgfHw4IFNA/w640-h430/Osho%20In%20Greese%20(59).JPG" title="What we call happiness has nothing to do with happiness - Osho" width="640" /></a></div><br /> </h1><h1 style="text-align: center;">जिसे हम सुख कहते हैं , उसका सुख से कोई संबंध नहीं है - ओशो </h1><p>सुना है मैंने, कोई नाव उलट गई थी। एक व्यक्ति उस नाव में बच गया और एक निर्जन द्वीप पर जा लगा। दिन, दो दिन, चार दिन; सप्ताह, दो सप्ताह उसने प्रतीक्षा की कि जिस बड़ी दुनिया का वह निवासी था, वहां से कोई उसे बचाने आ जाएगा। फिर महीने भी बीत गए और वर्ष भी बीतने लगा। फिर किसी को आते न देखकर वह धीरे-धीरे प्रतीक्षा करना भी भूल गया। पांच वर्षों के बाद कोई जहाज वहां से गुजरा, उस एकांत निर्जन द्वीप पर उस आदमी को निकालने के लिए जहाज ने लोगों को उतारा। और जब उन लोगों ने उस खो गए आदमी को वापस चलने को कहा, तो वह विचार में पड़ गया।</p><p><span> </span><span> </span>उन लोगों ने कहा, 'क्या विचार कर रहे हैं, चलना है या नहीं?' तो उस आदमी ने कहा, 'अगर तुम्हारे साथ जहाज पर कुछ अखबार हों जो तुम्हारी दुनिया की खबर लाए हों, तो मैं पिछले दिनों के कुछ अखबार देख लेना चाहता हूं।'</p><p><span> </span><span> </span>अखबार देखकर उसने कहा, 'तुम अपनी दुनिया सम्हालो और अखबार भी, और मैं जाने से इनकार करता हूं।' बहुत हैरान हुए वे लोग। उनकी हैरानी स्वाभाविक थी। पर वह आदमी कहने लगा, 'इन पांच वर्षों में मैंने जिस __ शांति, जिस मौन और जिस आनंद को अनुभव किया है, वह मैंने पूरे जीवन के पचास वर्षों में तुम्हारी उस बड़ी दुनिया में कभी अनुभव नहीं किया था। और सौभाग्य, और परमात्मा की अनुकंपा कि उस दिन तूफान में नाव उलट गयी और मैं इस द्वीप पर आ लगा। यदि मैं अभी इस द्वीप पर न लगा होता, तो शायद मुझे पता भी न चलता कि मैं किस बड़े पागलखाने में पचास वर्षों से जी रहा था।</p><p><span> </span><span> </span>हम उस बड़े पागलखाने के हिस्से हैं; उसमें ही पैदा होते हैं, उसमें ही बड़े होते हैं, उसमें ही जीते हैं और इसलिए कभी पता भी नहीं चल पाता कि जीवन में जो भी पाने योग्य है, वह सभी हमारे हाथ से चूक गया है। और जिसे हम सुख कहते हैं और जिसे हम शांति कहते हैं, उसका न तो सुख से कोई संबंध है और न शांति से कोई संबंध है। और जिसे हम जीवन कहते हैं, शायद वह मौत से किसी भी हालत में बेहतर नहीं है।</p><p><span> </span><span> </span>लेकिन परिचय कठिन है। चारों ओर एक शोरगुल की दुनिया है। चारों ओर शब्दों का, शोरगुल का उपद्रवग्रस्त वातावरण है। उस सारे वातावरण में हम वे रास्ते ही भूल जाते हैं, जो भीतर मौन और शांति में ले जा सकते हैं।</p><p><span> </span><span> </span>इस देश में और इस देश के बाहर भी कुछ लोगों ने अपने भीतर भी एकांत द्वीप की खोज कर ली है। न तो यह संभव है कि सभी की नावें डूब जाएं; न यह संभव है कि इतने तूफान उठे; और न यह संभव है कि इतने निर्जन द्वीप मिल जाएं, जहां सारे लोग शांति और मौन को अनुभव कर सकें। लेकिन, फिर भी यह संभव है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर ही उस निर्जन द्वीप को खोज ले। </p><p><b><i>- ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-73499689047559137992023-11-16T16:57:00.011-08:002023-11-16T16:57:00.128-08:00मरे हुए लोभ का नाम अहंकार है - ओशो <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3zYD_pMKksDLSp20ORZXGR9EzRYYE8g52uj9P44o6VaBXoVQTAM7bluKgnpTuqYY_PxHoBui5oR5neXuDdpvwN6lHrA-vJCeJ7-LBUsQIpDqkr1gaESRqzdhE_L2yAqtWmSuxwpXgTD-4Wep_jnjXwHEYB_vvOMw_oPCUgYaDNnbUUUn22vozevDWxQ/s1024/Osho%20Rajneesh%20(204).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Ego-is-the-name-of-dead-greed-Osho" border="0" data-original-height="693" data-original-width="1024" height="434" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3zYD_pMKksDLSp20ORZXGR9EzRYYE8g52uj9P44o6VaBXoVQTAM7bluKgnpTuqYY_PxHoBui5oR5neXuDdpvwN6lHrA-vJCeJ7-LBUsQIpDqkr1gaESRqzdhE_L2yAqtWmSuxwpXgTD-4Wep_jnjXwHEYB_vvOMw_oPCUgYaDNnbUUUn22vozevDWxQ/w640-h434/Osho%20Rajneesh%20(204).jpg" title="Ego is the name of dead greed - Osho" width="640" /></a></div> <p></p><br /><p></p><h1 style="text-align: center;">मरे हुए लोभ का नाम अहंकार है - ओशो </h1><p><br /></p><p>मरे हुए लोभ का नाम अहंकार है, और अजन्मे अहंकार का नाम लोभ है, वह जो अभी जन्म लेगा। और इस वजह से हम चुक रहे हैं वर्तमान से जहां कि सत्य है, जहां कि अस्तित्व है। लेकिन लोभ बड़ा कुशल है, जब सब तरह के लोभ से चुक जाएगा तो वह कहता अब परमात्मा को भी पाना चाहिए। वह भी अहंकार ही है। लोभ बड़ा कुशल है, अहंकार की बड़ी अनंत आकांक्षाएं हैं, जब सब पा लेता है वह — धन पा लेता, यश पा लेता, प्रेम पा लेता, आदर पा लेता तब वह कहता है कि ठीक है यह सब पा लिया, अब परमात्मा को भी पाना है, अमृत को भी पाना है, आनंद को भी पाना है, मोक्ष को भी पाना है, अब मोक्ष कैसे मिले? फिर वह लोभ की भाषा में मोक्ष की बातें सोचने लगता है।</p><p>चुक गया, उसे पता नहीं है कि यही भाषा तो इतने दिन चुकाती रही है, यही भाषा फिर आगे भी पकड़े रहेगा वह। हो सकता है वह ढंग बदल ले अपना, मधुशाला न जाकर मंदिर जाने लगे, फिल्में न देख कर भजन-कीर्तन करने लगे। यह सब कर लेगा वह। लेकिन उसके चित्त का जो तनाव था, लोभ का और अहंकार का वह जारी है और उसी से वह चुक रहा है।</p><p>तो मैं कैसे कहूं आपसे कि आप क्या लोभ करें? मैं तो आप से कहूंगा, आप लोभ को समझ लें, कि लोभ चुकाने वाला है और आप अहंकार को समझ लें, कि अहंकार चुकाने वाला है । और आप यह समझ लें कि अतीत और भविष्य चुकाने वाले हैं, वर्तमान मिलाने वाला है, वही अस्तित्व है।</p><p><b><i> - ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-36928158357273355042023-11-11T17:52:00.008-08:002023-11-11T17:52:00.129-08:00बाहर सिर्फ रास्तों की धूल है, आनंद बाहर नहीं है - ओशो <h1 style="text-align: center;"> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjRWEgQdkJDnwxqb1h2SXwmN3O3isitZqnApt41OM3oxD192PnmSWXNVeg2WSO19cfovyXZElPRjJNLSZLSG4pnlbT0XgdioxFUXvqTm0qMzjpvghUMksknOlcVmHMvcWab36fIcRk5pbSMFcg36ivATIALakf1BDxDrUA5QCP-rggwRWaPrWGrwr9iUg/s661/Osho%20In%20Greese%20(58).JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Outside-is-only-the-dust-of-the-road-happiness-is-not-outside-Osho" border="0" data-original-height="661" data-original-width="432" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjRWEgQdkJDnwxqb1h2SXwmN3O3isitZqnApt41OM3oxD192PnmSWXNVeg2WSO19cfovyXZElPRjJNLSZLSG4pnlbT0XgdioxFUXvqTm0qMzjpvghUMksknOlcVmHMvcWab36fIcRk5pbSMFcg36ivATIALakf1BDxDrUA5QCP-rggwRWaPrWGrwr9iUg/w418-h640/Osho%20In%20Greese%20(58).JPG" title="Outside is only the dust of the road, happiness is not outside - Osho" width="418" /></a></div><br /></h1><h1 style="text-align: center;">बाहर सिर्फ रास्तों की धूल है, आनंद बाहर नहीं है - ओशो </h1><p>ध्यान का विज्ञान कहता है कि पहला तल बोलने का है, दूसरा तल सोचने का है, तीसरा तल दर्शन का है। पश्यंति का अर्थ है : देखना; जहां शब्द देखे जाते हैं। मोहम्मद कहते हैं: मैंने कुरान देखी, सुनी नहीं। वेद के ऋषि कहते हैं: हमने ज्ञान देखा, सुना नहीं। मूसा कहते हैं : मेरे सामने टेन कमांडमेंट्स प्रकट हुए, दिखाई पड़े, मैंने सुने नहीं। यह तीसरे तल की बात है, जहां विचार दिखाई पड़ते हैं, सुनाई नहीं पड़ते हैं।</p><p><span> </span><span> </span>तीसरा तल भी ध्यान के हिसाब से मन का आखिरी तल नहीं है। चौथा एक तल है, जिसे ध्यान का विज्ञान परा कहता है। वहां विचार दिखाई भी नहीं पड़ते, सुनाई भी नहीं पड़ते। और जब कोई व्यक्ति देखने और सुनने से नीचे उतर जाता है, तब उसे चौथे तल का पता चलता है। और उस चौथे तल के पार जो जगत है, वह ध्यान का जगत है।</p><p><span> </span><span> </span>ये चार हमारी पर्ते हैं। इन चार दीवारों के भीतर हमारी आत्मा है। हम बाहर के परकोटे की दीवार के बाहर ही जीते हैं। पूरे जीवन शब्दों की पर्त के साथ जीते हैं और स्मरण नहीं आता कि खजाने बाहर नहीं हैं, बाहर सिर्फ रास्तों की धूल है। आनंद बाहर नहीं है, बाहर आनंद की धुन भी सुनाई पड़ जाए तो बहुत। जीवन का सब-कुछ भीतर है—जड़ों में, गहरे अंधेरे में दबा हुआ। ध्यान वहां तक पहुंचने का मार्ग है।</p><p><span> </span><span> </span>पृथ्वी पर बहुत से रास्तों से उस पांचवीं स्थिति में पहुंचने की कोशिश की जाती रही है। और जो व्यक्ति इन चार स्थितियों को पार करके पांचवीं गहराई में नहीं डूब पाता, उस व्यक्ति को जीवन तो मिला, लेकिन जीवन को जानने की उसने कोई कोशिश नहीं की। उस व्यक्ति को खजाने तो मिले, लेकिन खजानों से वह अपरिचित रहा और रास्तों पर भीख मांगने में उसने समय बिताया। उस व्यक्ति के पास वीणा तो थी, जिससे संगीत पैदा हो सकता था; लेकिन उसने उसे कभी छुआ नहीं, उसकी अंगुलियों का कभी कोई स्पर्श उसकी वीणा तक नहीं पहुंचा।</p><p><b><i>- ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-80129005335275394592023-11-09T16:58:00.012-08:002023-11-09T16:58:00.126-08:00परमात्मा का अनुभव एक क्षण में हो जाता है, लेकिन परमात्मा को सहने में थोड़ा वक्त लग जाता है - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEihqAQ2hXAw2XXF9xImNTcDBAc-oH7SyxHPopksxCbTExMzH7PN_-7ZPgghYpb3TzXzl6I6KnuMVvVo-GyVj1_2GKYV_V0x_qeEt1OZwWfBUpz3QMk2Am9TKkUN9v6W8aCGJM4KXdJttzzmSoxIoUN11YBBtVlwwwrzdrtpo0G1G2XkAt3spAlp1qzGzg/s1024/Osho%20Rajneesh%20(203).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="God-is-experienced-in-a-moment-but-it-takes-some-time-to-bear-God-Osho" border="0" data-original-height="683" data-original-width="1024" height="426" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEihqAQ2hXAw2XXF9xImNTcDBAc-oH7SyxHPopksxCbTExMzH7PN_-7ZPgghYpb3TzXzl6I6KnuMVvVo-GyVj1_2GKYV_V0x_qeEt1OZwWfBUpz3QMk2Am9TKkUN9v6W8aCGJM4KXdJttzzmSoxIoUN11YBBtVlwwwrzdrtpo0G1G2XkAt3spAlp1qzGzg/w640-h426/Osho%20Rajneesh%20(203).jpg" title="God is experienced in a moment, but it takes some time to bear God - Osho" width="640" /></a></div><br /><p><br /></p><h1 style="text-align: center;">परमात्मा का अनुभव एक क्षण में हो जाता है, लेकिन परमात्मा को सहने में थोड़ा वक्त लग जाता है - ओशो </h1><p><br /></p><p>अंधेरा एक रात का हो कि हजार साल का हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । दीया जलता है और अंधेरा मिटता है। असल में अंधेरे की कोई पर्तें नहीं होतीं कि एक दिन का अंधेरा और दो दिन का अंधेरा तो दोहरी पर्त हो जाए कि तीन दिन का अंधेरा तो तिहरी पर्त हो जाए। अंधेरे की कोई पर्त नहीं होती कि वह डेंस हो जाए, घना हो जाए। अंधेरा वह घना नहीं होता, अंधेरा बस अंधेरा है और एक दीये की लौ सब तोड़ देती है।</p><p>पाप की भी कोई पर्त नहीं होती, क्योंकि पाप भी अंधेरा है। अज्ञान है, अविद्या है, उसकी भी कोई पर्त नहीं होती। लेकिन सवाल सिर्फ इतना है, सवाल सिर्फ इतना है कि हम वहां खड़े हो जाएं जहां द्वार खुलता है। हां, पाप की आदत होती है, पर्त नहीं होती है, अंधेरे की भी आदत होती है।</p><p>यह हो सकता है एक आदमी वर्षों से अंधेरे में रहा हो, द्वार खोल दे, रोशनी आ जाए लेकिन उसकी आंख बंद हो जाए, यह हो सकता है। यह हो सकता है कि सालों से अंधेरे में रहा आदमी द्वार खोल दे, रोशनी भीतर आ जाएगी फौरन उसके द्वार खोलने में और रोशनी के आने में क्षण का भी फासला नहीं होगा - युग पथ । ऐसा द्वार खुला इधर रोशनी आई, इधर द्वार खुलता गया रोशनी आती गई। द्वार का खुलना और रोशनी का आना एक ही क्रिया के दो हिस्से होंगे।</p><p>लेकिन यह हो सकता है कि सैकड़ों वर्षों से अंधेरे में रहे आदमी की आंखें रोशनी देखने में असमर्थ हो जाए। वह आंख बंद कर ले और फिर अंधेरे में हो जाए, यह हो सकता है। अंधेरे की आदत हो सकती है, पाप की भी आदत हो सकती है। पर्त नहीं होती है। लेकिन आदत तोड़ी जा सकती है।</p><p>आदत समझपूर्वक ही अपने आप टूट जाती है। आदत तोड़ना बहुत कठिन नहीं है । अगर अंधेरे की पर्तें होतीं तो तोड़ना बहुत कठिन था। रोशनी आ गई है, आंख बंद हो गई है, वह आदमी धीरे-धीरे आंख – एक बार, दो बार, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे रोशनी का अभ्यस्त हो सकता, आंखें थोड़ी देर में खोल लेगा, रोशनी देख लेगा, बंद भी कर सकता है बीच-बीच में, खोल भी सकता है, धीरे-धीरे रोशनी का भय मिट जाएगा, वह रोशनी में जीने लगेगा।</p><p>परमात्मा का अनुभव एक क्षण में हो जाता है। लेकिन परमात्मा को सहने में थोड़ा वक्त लग जाता है । सहने में, क्योंकि इतनी बड़ी शक्ति और इतना बड़ा प्रकाश हम पर उतरता है, थोड़ा वक्त लग जाता है। कई बार तो हम घबड़ा कर वापस तक लौट सकते हैं, डर भी सकते हैं, क्योंकि आनंद भी अगर एकदम से उतर आए, तो प्राणों को कंपा जाता है। परमात्मा की उपलब्धि तो एक क्षण में हो जाती है। हां, उपलब्धि के लिए राजी होने में थोड़ा वक्त लग सकता है, वह दूसरी बात है।</p><p><b><i> - ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-67333217385368388252023-11-04T18:53:00.005-07:002023-11-04T18:53:00.130-07:00 आदमी ऊपर की पर्त पर जीता है - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjEHsx3BmShNELmWwyHOLalZNXoePFYp4G58OpQp4BfELNqxi-GZ9aeIFWfShEzwPJ6ArnDTWE_7p1tJKQRRMcv7HcVV2uugGaWlo9y84rokWLjvyiOFOH7joi6PCE_g3pQy7NJqxQxKmwn-_iLto3P_bjUkid92K7P5ImKeY9q_hMiKrt4WOWCH2kYoA/s661/Osho%20In%20Greese%20(57).JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Man-lives-on-the-top-layer-Osho" border="0" data-original-height="443" data-original-width="661" height="428" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjEHsx3BmShNELmWwyHOLalZNXoePFYp4G58OpQp4BfELNqxi-GZ9aeIFWfShEzwPJ6ArnDTWE_7p1tJKQRRMcv7HcVV2uugGaWlo9y84rokWLjvyiOFOH7joi6PCE_g3pQy7NJqxQxKmwn-_iLto3P_bjUkid92K7P5ImKeY9q_hMiKrt4WOWCH2kYoA/w640-h428/Osho%20In%20Greese%20(57).JPG" title="Man lives on the top layer - Osho" width="640" /></a></div><br /><h1 style="text-align: center;"><br /></h1><h1 style="text-align: center;">आदमी ऊपर की पर्त पर जीता है - ओशो </h1><p>पहली बात तो यह कि साधारणतः जब हम बोलते हैं, तभी हमें पता चलता है कि हमारे भीतर कौन से विचार चलते थे। ध्यान का विज्ञान इस स्थिति को अत्यंत ऊपरी अवस्था मानता है। अगर एक आदमी न बोले, तो हम पहचान भी न पाएं कि वह कौन है, क्या है।</p><p><span> </span><span> </span>शब्द हमारे बाहर प्रकट होता है, तभी हमें पता चलता है—हमारे भीतर क्या था। ध्यान का विज्ञान कहता है, यह अवस्था सबसे ऊपरी अवस्था है चित्त की; सरफेस है, ऊपर की पर्त है। हम नहीं बोले होते हैं, तब भी पहले उसके विचार भीतर चलता है; अन्यथा हम बोलेंगे कैसे? अगर मैं कहता हूं ओम—तो इसके पहले कि मैंने कहा- मेरे भीतर, ओठों के पार, मेरे हृदय के किसी कोने में ओम का निर्माण हो जाता है। ध्यान कहता है, यह दूसरी पर्त है व्यक्तित्व की गहराई की।</p><p><span> </span><span> </span>साधारणतः आदमी ऊपर की पर्त पर ही जीता है, उसे दूसरी पर्त का भी पता नहीं होता। उसके बोलने की दुनिया के नीचे भी एक सोचने का जगत है, उसका भी उसे कुछ पता नहीं होता। काश, हमें हमारे सोचने के जगत का पता चल जाए, तो हम बहुत हैरान हो जाएं। जितना हम सोचते हैं, उसका बहुत थोड़ा सा हिस्सा वाणी में प्रकट होता है। ठीक ऐसे ही, जैसे एक बर्फ के टुकड़े को हम पानी में डाल दें, तो एक हिस्सा ऊपर हो और नौ हिस्सा नीचे डूब जाए। हमारा भी नौ हिस्सा जीवन का, विचार का तल नीचे डूबा रहता है; एक हिस्सा ऊपर दिखाई पड़ता है। </p><p><span> </span><span> </span>इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि आप क्रोध कर चुकते हैं, तब आप कहते हैं कि यह कैसे संभव हुआ कि मैंने क्रोध किया। एक आदमी हत्या कर देता है, फिर पछताता है कि यह कैसे संभव हुआ कि मैंने हत्या की! इनस्पाइट ऑफ मी...वह कहता है, मेरे बावजूद यह हो गया, मैंने तो कभी ऐसा करना ही नहीं चाहा था। उसे पता नहीं कि हत्या आकस्मिक नहीं है, पहले भीतर निर्मित होती है। लेकिन वह तल गहरा है, और उस तल से हमारा कोई संबंध नहीं रह गया।</p><p><b><i>- ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-73393198800818094552023-11-02T17:59:00.012-07:002023-11-02T17:59:00.130-07:00उपलब्धि का द्वार हैः वर्तमान में खड़े होना - ओशो <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWoc6SZITia6renFMjcbKyej7FXmvfY4OjLF9kWmYHK-8_bWojSS2LaUl-l7wg5GNZgkkV48B97cusACRg4HrE9YPoJOx6qzUX48m7Z3odK0YAwbUEdujUcDBIK8Fd0_hXas3jgqsA8P-AEYbAHjLqdeamEq1hV-aSmOm_GKScYw1vIFagSGFO2pkG2g/s1024/Osho%20Rajneesh%20(202).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="The-Door-to-Achievement-is-Standing-in-the-Present-Osho" border="0" data-original-height="678" data-original-width="1024" height="424" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWoc6SZITia6renFMjcbKyej7FXmvfY4OjLF9kWmYHK-8_bWojSS2LaUl-l7wg5GNZgkkV48B97cusACRg4HrE9YPoJOx6qzUX48m7Z3odK0YAwbUEdujUcDBIK8Fd0_hXas3jgqsA8P-AEYbAHjLqdeamEq1hV-aSmOm_GKScYw1vIFagSGFO2pkG2g/w640-h424/Osho%20Rajneesh%20(202).jpg" title="The Door to Achievement is Standing in the Present - Osho" width="640" /></a></div><br /> <p></p><h1 style="text-align: center;">उपलब्धि का द्वार हैः वर्तमान में खड़े होना - ओशो </h1><p><br /></p><p>उपलब्धि का द्वार हैः वर्तमान में खड़े होना । और इसलिए इस दिशा में थोड़ा सा काम शुरू करें, इस दिशा में थोड़ा सा काम शुरू करें, चौबीस घंटे में आधा घंटा, पंद्रह मिनट के लिए द्वार बंद करके अंधेरे में चुपचाप बैठ जाएं, कुछ भी न करें। कुछ भी न करें, चुपचाप बैठ जाएं। बोलने में ऐसा लगता है कि बैठना भी करना ही हुआ, बोलने में वैसा ही लगता है कि मुट्ठी खोलना भी करना ही हुआ, बोलने भर ऐसा लगता है। असल में बैठ जाने का मतलब है कि जो-जो आप करते थे वह न करें, जो-जो कर रहे थे चौबीस घंटे वह न करें। चुपचाप अंधेरे में बैठ जाएं आधे घंटे को और ऐसा छोड़ दें अपने को कि हम कुछ कर ही नहीं रहे हैं।</p><p>जैसे एक सूखा पत्ता वृक्ष से गिरे, बस, हवाएं उसको पूरब ले जाएं तो पूरब चला जाए, पश्चिम ले जाएं तो पश्चिम चला जाए। न ले जाएं तो गिर जाए जमीन पर, लेकिन अपनी तरफ से कहीं न जाए। इस बात को थोड़ा समझना । एक गिरता हुआ पत्ता है वृक्ष से, सूखा पत्ता गिर रहा है नीचे, उसकी अब अपनी कोई इच्छा नहीं, अब उसे कही पहुंचना नहीं, अब उसे कुछ होना नहीं, अब तो हवाओं की इच्छा पर उसने छोड़ दिया अपने को – सरेंडर्ड – समर्पित है। हवाएं पूरब ले जाती हैं पूरब चला, पश्चिम ले जाती हैं पश्चिम चला, नहीं ले जाती हैं गिर गया, उठा लेती हैं आकाश में उठ गया, नहीं उठाती हैं जमीन पर विश्राम करता है।</p><p>बस सूखे पत्ते का भाव समझ लें और एक आधा घंटे के लिए द्वार बंद करके सूखे पत्ते हो जाएं। अपनी तरफ से कुछ न करें, इसका मतलब यह नहीं सब होना बंद हो जाएगा । विचार चलेंगे, पर उनको हवाओं का धक्का समझें, इससे ज्यादा नहीं। हवाएं विचार इधर ले जाएं जाने दें, हवाएं विचार इधर ले जाएं जाने दें, आप न रोकें, न ले जाएं, आप कोई भी काम न करें। ले जाने का भी काम मत करें, रोकने का भी काम मत करें। आप बस साक्षी हो जाएं और देखते रहें कि सूखे पत्ते की तरह हैं, हवाएं जो कर रही हैं, कर रही हैं। परमात्मा जो करवा रहा है, हो रहा है। परमात्मा कह रहा है बुरे विचार करो तो बुरे विचार हो रहे हैं, परमात्मा कह रहा है अच्छे विचार करो तो अच्छे विचार हो न हमें अच्छे से मतलब है, न हमें बुरे से मतलब है। हम निर्णायक ही नहीं हैं, हम कोई डिसीजन नहीं लेते, हम कोई कुछ भी नहीं करते, हम सिर्फ ना कुछ होकर बैठ गए हैं।</p><p>बड़ा मुश्किल है क्योंकि धार्मिक आदमी को निरंतर यह सिखाया जाता है: बुरा विचार छोड़ो, अच्छा विचार करो; बुरे विचार को मत आने दो, अच्छे को लाओ।</p><p>फिर आपने करना शुरू कर दिया, फिर आप उलझ गए चक्कर में। फिर आप वर्तमान में न हो सकेंगे, क्योंकि वर्तमान में विचार आया है और भविष्य में अच्छा विचार है, अब जिसको लाना है और वर्तमान को हटाना है और भविष्य को लाना है। आप उपद्रव में पड़ गए, फिर वर्तमान में होना असंभव है।</p><p><b><i> - ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-59882645111095361642023-10-28T18:53:00.006-07:002023-10-28T18:53:00.138-07:00जैसे-जैसे आदमी सभ्य और शिक्षित हआ है, वैसे-वैसे ध्यान से दूर हआ है - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8PA1yMOZ0109sZE9gNoOTSkt3Vr_4-Owlbqr-7D19zzqLvXlHOX6qy_iCpP2TTA0ARluPANxr_8EnvrGHZFebNe8nFOPyaxD5nrfwfiIK1ThxhTDqkfWJ__XeaEYg3UNGDVRiG15CYjPWZqhblByYrHobn9gomBpr7kUm9SSp3LN1Yw_-W4X1vt866A/s800/Osho%20In%20Greese%20(56).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="As-man-has-become-civilized-and-educated-he-has-moved-away-from-meditation-Osho" border="0" data-original-height="534" data-original-width="800" height="428" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8PA1yMOZ0109sZE9gNoOTSkt3Vr_4-Owlbqr-7D19zzqLvXlHOX6qy_iCpP2TTA0ARluPANxr_8EnvrGHZFebNe8nFOPyaxD5nrfwfiIK1ThxhTDqkfWJ__XeaEYg3UNGDVRiG15CYjPWZqhblByYrHobn9gomBpr7kUm9SSp3LN1Yw_-W4X1vt866A/w640-h428/Osho%20In%20Greese%20(56).jpg" title="As man has become civilized and educated, he has moved away from meditation - Osho" width="640" /></a></div><br /><h1 style="text-align: center;"><br /></h1><h1 style="text-align: center;"> जैसे-जैसे आदमी सभ्य और शिक्षित हआ है, वैसे-वैसे ध्यान से दूर हआ है - ओशो </h1><p>हम जिसे सुख कहते हैं, धर्म उसे सुख नहीं कहता। है भी नहीं, हम भलीभांति जानते हैं। जिसे हम सुख कहते हैं, वह थोड़ी सी देर के लिए किसी तनाव से मुक्ति है।... नकारात्मक है, निगेटिव है।</p><p><span> </span><span> </span>एक आदमी थोड़ी देर के लिए शराब पी लेता है, और सोचता है सुख में है! एक आदमी थोड़ी देर के लिए सेक्स में उतर जाता है, और सोचता है सुख में है! एक आदमी थोड़ी देर के लिए संगीत सुन लेता है, और सोचता है कि सुख में है। एक आदमी बैठकर गपशप कर लेता है, हंसी-मजाक कर लेता है, हंस लेता है, और सोचता है कि सुख में है!</p><p><span> </span><span> </span>ये सारे सुख तंग जूते को सांझ उतारने से भिन्न नहीं हैं, उनका सुख से कोई संबंध नहीं है। सुख एक पॉजिटिव, एक विधायक स्थिति है— नकारात्मक नहीं। सुख छींक जैसी चीज नहीं है कि आपको छींक आ जाती है, और पीछे थोड़ी राहत मिलती है। क्योंकि छींक परेशान कर रही थी। वह एक नकारात्मक चीज नहीं है कि एक बोझ मन से उतर जाता है, और पीछे अच्छा लगता है।</p><p><span> </span><span> </span>सुख एक विधायक अनुभव है। लेकिन बिना ध्यान के वैसा विधायक सुख किसी को अनुभव नहीं होता। और जैसे-जैसे आदमी सभ्य और शिक्षित हआ है, वैसे-वैसे ध्यान से दूर हआ है। सारी शिक्षा, सारी सभ्यता—आदमी को दूसरों से कैसे संबंधित हों, यह तो सिखा देती है। लेकिन अपने से कैसे संबंधित हों, यह नहीं सिखाती।</p><p><span> </span><span> </span>समाज आपको एक फंक्शन से ज्यादा नहीं मानता। अच्छे दुकानदार हों, अच्छे नौकर हों, अच्छे पति हों, अच्छी मां हों, अच्छी पत्नी हों—बात समाप्त हो गयी; आपसे समाज को कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए समाज की सारी शिक्षा उपयोगिता है, यूटिलिटि है। समाज सारी शिक्षा ऐसी देता है, जिससे कुछ पैदा होता हो। आनंद से कुछ भी पैदा होता नहीं दिखाई पड़ता। आनंद कोई कमोडिटी नहीं है, जो बाजार में बिक सके। आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे रुपए में भंजाया जा सके। आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे बैंक-बैलेंस में जमा किया जा सके। आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसकी बाजार में कोई कीमत हो सके। इसलिए समाज को आनंद से कोई प्रयोजन नहीं है। और कठिनाई यही है कि आनंद भर एक ऐसी चीज है, जो व्यक्ति के लिए मूल्यवान है; बाकी कुछ भी मूल्यवान नहीं है। लेकिन जैसे-जैसे आदमी सभ्य होता जाता है, यूटिलिटेरियन होता है— सब चीजों की उपयोगिता होनी चाहिए।</p><p><b><i>- ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-61683323126515711472023-10-26T18:00:00.015-07:002023-10-26T18:00:00.146-07:00 ध्यान के प्रयोग में आदमी बुरे-भले का भी विचार नहीं करता - ओशो <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjewy4nsjt2mJmaIbAIKaxRv_5M6eKg3Cz2gYv3nC4REzTV0eHHbXCrCoTy6EwPz2vNsjVp7HHpnMYT8u-PW1z5lS_YIC_MIujSElu7RmJnPlJjF-1oKFknZ9mSoE6VwJ-xK2sDd4rW65C8lvnvKBtWQ1ts56c2K4jHxXfw8lLT5Wg-XPS86orrW_9X8Q/s1024/Osho%20Rajneesh%20(201).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="In-the-use-of-meditation-man-does-not-even-think-about-good-or-bad-Osho" border="0" data-original-height="725" data-original-width="1024" height="454" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjewy4nsjt2mJmaIbAIKaxRv_5M6eKg3Cz2gYv3nC4REzTV0eHHbXCrCoTy6EwPz2vNsjVp7HHpnMYT8u-PW1z5lS_YIC_MIujSElu7RmJnPlJjF-1oKFknZ9mSoE6VwJ-xK2sDd4rW65C8lvnvKBtWQ1ts56c2K4jHxXfw8lLT5Wg-XPS86orrW_9X8Q/w640-h454/Osho%20Rajneesh%20(201).jpg" title="In the use of meditation, man does not even think about good or bad - Osho" width="640" /></a></div> <p></p><p></p><p> </p><h1 style="text-align: center;">ध्यान के प्रयोग में आदमी बुरे-भले का भी विचार नहीं करता - ओशो </h1><p><br /></p><p>ध्यान के प्रयोग में आदमी बुरे-भले का भी विचार नहीं करता, वह विचार ही नहीं करता, जो आता है चुपचाप देखता रहता है। जैसे सड़क पर खड़ा हुआ एक आदमी देख रहा है, लोग गुजर रहे हैं, अच्छे भी बुरे भी, रास्ता चल रहा है, वह चुपचाप खड़ा देख रहा है। आधा घंटे के लिए चुपचाप खड़े हो जाएं और देखते रहें। जो भी हो रहा है होने दें, रोके जरा भी नहीं, क्योंकि रोकना आपका कृत्य बन जाता है और आप काम में लग गए और करे भी न, राम-राम भी न करें क्योंकि वह भी आप का कृत्य बन जाता है, आप फिर काम में लग गए।</p><p>आप कुछ करें ही मत अपनी तरफ से, आप अपनी तरफ से बिलकुल शून्य हो जाएं। और जो हो रहा है आंख के पर्दे पर होने दें। जो भी गुजर रहा है गुजरने दें, आ रहा है आने दें, जा रहा है जाने दें। न आप रोकें, न आप छेड़ें, न आप बीच में उतरें, आप किसी तरह का इनवाल्वमेंट न लें, दूर खड़े हुए देखते रहें।</p><p>कठिन होगा, क्योंकि हमारी आदत निरंतर हर चीज के साथ उलझ जाने की है । चुपचाप बैठ जाना कठिन होगा । चुपचाप का यह मतलब नहीं कि विचार नहीं होंगे, विचार तो होंगे लेकिन आप चुपचाप हों, विचारों को चलने दें।</p><p>जैसे एक फिल्म चल रही है पर्दे पर, तो मस्तिष्क का भी एक पर्दा है, एक प्रोजेक्टर है उसका, जो फिल्म चलाता रहता है। एक फिल्म चल रही है पर्दे पर। बस इतना समझें कि विचार चल रहे हैं, स्मृतियां आ रही हैं, भविष्य के खयाल आ रहे हैं। आने दो, चुपचाप बैठे रहो, देखते रहो । आज कठिन होगा, कल कठिन होगा, परसों कठिन नहीं होगा। बस हिम्मत इतनी रखनी है कि कूद मत जाना, अगर यह बुरा विचार आ गया, इसे अलग करो। बुरे-भले से कुछ लेना-देना नहीं है, साक्षी को न कुछ बुरा है न कुछ भला है।</p><p>कांटे भी उतना ही अर्थ रखते हैं फूल जितना अर्थ रखते हैं । न कांटा बुरा है, न फूल अच्छा है। वह हमारी अपनी समझ के हिसाब से अच्छा-बुरा कर लेते हैं। सब चीजें हैं, और आप चुपचाप बैठे रहें। कुछ ही दिनों में अगर चुपचाप बैठे हैं तो एक अदभुत अनुभव शुरू होगा और वह अनुभव यह होगा कि कभी-कभी ऐसा होगा कि गैप आ जाएगा, इंटरवल आ जाएगा, अंतराल आ जाएगा। कभी-कभी ऐसा होगा कि विचार थोड़ी देर के लिए नहीं होंगे, एकदम लिप्त हो जाएंगे, एक विचार आया और फिर दूसरा नहीं आया और बीच में खाली जगह छूट जाएगी। उस एक खाली जगह से आपको पहली झलकें मिलनी शुरू होंगी। और उस खाली जगह में आप भी नहीं होंगे, इतनी खाली जगह होगी कि बस खालीपन होगा, जस्ट एंप्टीनेस। वही द्वार है, वहीं से पहली झलकें आपको मिलनी शुरू होंगी । और निरंतर इस प्रक्रिया में लगे रहे तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे विचार कम होने लगेंगे खाली जगह ज्यादा होने लगेंगी।</p><p>ऐसा जैसे रास्ते पर एक आदमी निकला और फिर घंटे भर तक दूसरा आदमी नहीं निकला और रास्ता खाली रह गया। एक विचार आया पर्दे पर फिर दूसरा नहीं आया और बहुत देर के लिए पर्दा खाली सफेद रह गया। उस सफेदी में से, उस खालीपन में से, उस एंप्टीनेस में से आपके पहले संपर्क परमात्मा से शुरू हुए, क्योंकि उस क्षण में आप वर्तमान में होंगे। उस क्षण में न आप अतीत में हो सकते, न आप भविष्य में हो सकते। क्योंकि विचार अतीत में ले जा सकता है, विचार भविष्य में ले जा सकता है। जहां विचार नहीं है वहां आप कहीं भी नहीं जा सकते, आप वही होंगे जहां हैं।</p><p>विचार रहित हुए कि आप वर्तमान में हुए। वर्तमान में होने का अर्थ है : विचार रहित हो जाना। लेकिन विचार रहित होने की कोशिश मत करना, नहीं तो कभी विचार रहित नहीं हो सकते। बस चुपचाप देखना विचार को, वह अपने से जाता है। जितना-जितना हमारा देखना बढ़ता है उतना उतना विचार कम होता है, प्रपोर्सनेटली जितना हम देखते हैं भीतर उतना विचार खतम होता है। जिस दिन हम पूरे जग जाते हैं उस दिन विचार नहीं रह जाता। और जहां विचार नहीं रहा और हम पूरे जगे हुए रहे, टोटली अवेयर, विचार गए, हम जगे हैं, अब हम कहां होंगे ? अब हम वहीं होंगे जहां हम हैं, एक इंच इधर-उधर नहीं हो सकते। तब हम खड़े हो गए उस द्वार पर, जहां से मिलन हो जाता है । और इसलिए इसे लोभ की भाषा में मत समझना । आनंद मिलेगा लेकिन आनंद पाने की भाषा में मत समझना, आनंद आएगा लेकिन आनंद को लक्ष्य मत बनाना, अमृतत्व मिलेगा लेकिन अमृतत्व की चेष्टा मत करना ।</p><p><b><i> - ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-53136362437026051172023-10-21T18:54:00.008-07:002023-10-21T18:54:00.142-07:00जिंदगी चिंताओं का एक जोड़ नहीं है - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgWYNN0dPc7vY8dy_mbk2_QRlJ3N_W-TWX6UeNNxWHbX6RuBr29f3gxR30HfUP7IyGOq049cJ6CG-Tu_S7GlXcecryW0MM-ZADkOwX4ZSoW9jb_VFVyvRaBlehasDCRPTUlBEW0Na-xhI1Yjw7nbr3esJlUe3Xu8lQeakTDA6zbhubCoGCBf7Ojti7UKg/s800/Osho%20In%20Greese%20(55).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Life-is-not-a-bundle-of-worries-Osho" border="0" data-original-height="532" data-original-width="800" height="426" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgWYNN0dPc7vY8dy_mbk2_QRlJ3N_W-TWX6UeNNxWHbX6RuBr29f3gxR30HfUP7IyGOq049cJ6CG-Tu_S7GlXcecryW0MM-ZADkOwX4ZSoW9jb_VFVyvRaBlehasDCRPTUlBEW0Na-xhI1Yjw7nbr3esJlUe3Xu8lQeakTDA6zbhubCoGCBf7Ojti7UKg/w640-h426/Osho%20In%20Greese%20(55).jpg" title="Life is not a bundle of worries - Osho" width="640" /></a></div><br /><h1 style="text-align: center;"><br /></h1><h1 style="text-align: center;"> जिंदगी चिंताओं का एक जोड़ नहीं है - ओशो </h1><p>मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, 'ध्यान से क्या मिलेगा?' शायद वे सोचते होंगे—रुपए मिलें, मकान मिले, कोई पद मिले।...ध्यान से न पद मिलेगा, न रुपए मिलेंगे, न मकान मिलेगा; ध्यान की कोई उपयोगिता नहीं है।</p><p><span> </span><span> </span>लेकिन जो आदमी सिर्फ उपयोगी चीजों की तलाश में घूम रहा है, वह आदमी सिर्फ मौत की तलाश में घूम रहा है। जीवन की भी कोई उपयोगिता नहीं है। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह परपज़लेस है। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, उसकी बाजार में कोई कीमत नहीं है। प्रेम की कोई कीमत है बाजार में? कोई कीमत नहीं है। आनंद की कोई कीमत है? कोई कीमत नहीं है। प्रार्थना की कोई कीमत है? कोई कीमत नहीं है। ध्यान की, परमात्मा की? इनकी कोई भी कीमत नहीं है। </p><p><span> <span> </span></span>लेकिन जिस जिंदगी में अनुपयोगी, नॉन-यूटिलिटेरियन मार्ग नहीं होता, उस जिंदगी में सितारों की चमक भी खो जाती है, उस जिंदगी में फूलों की सुगंध भी खो जाती है, उस जिंदगी में पक्षियों के गीत भी खो जाते हैं, उस जिंदगी में नदियों की दौड़ती हुई गति भी खो जाती है; उस जिंदगी में कुछ भी नहीं बचता, सिर्फ बाजार बचता है। उस जिंदगी में काम के सिवाय कुछ भी नहीं बचता। उस जिंदगी में तनाव और परेशानी और चिंताओं के सिवाय कुछ भी नहीं बचता। और जिंदगी चिंताओं का एक जोड़ नहीं है। लेकिन हमारी जिंदगी चिंताओं का एक जोड़ है।</p><p><b><i>- ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-67090866017441726702023-10-19T18:01:00.014-07:002023-10-19T18:01:00.204-07:00कुछ भी न करने का अंतिम फल समर्पण है - ओशो <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIT8MJgGUugh32yKz3lgzQfTuhnuzRwh2fBGmNtaUXbbktPyWaXH3-YOewiwPMku-4WhzBoYAjnbzCKVGL657JH2mKpBAewl_bMBHAxdFQ92QlYEWClZ_G39bBA4-xX-O7hjwIbEyv4yHdCIDK7JIeoOyoSRJq1DZ6ni6mk8745Ax-6wxYoxLfjKyuMQ/s1024/Osho%20Rajneesh%20(200).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Surrender-is-the-ultimate-result-of doing-nothing-Osho" border="0" data-original-height="679" data-original-width="1024" height="424" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIT8MJgGUugh32yKz3lgzQfTuhnuzRwh2fBGmNtaUXbbktPyWaXH3-YOewiwPMku-4WhzBoYAjnbzCKVGL657JH2mKpBAewl_bMBHAxdFQ92QlYEWClZ_G39bBA4-xX-O7hjwIbEyv4yHdCIDK7JIeoOyoSRJq1DZ6ni6mk8745Ax-6wxYoxLfjKyuMQ/w640-h424/Osho%20Rajneesh%20(200).jpg" title="Surrender is the ultimate result of doing nothing - Osho" width="640" /></a></div> <p></p><h1 style="text-align: left;"><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: center;">कुछ भी न करने का अंतिम फल समर्पण है - ओशो</div><div style="text-align: center;"> </div></h1><div><p>असल में समर्पण का अर्थ ही है कि तू कुछ भी न कर। और जब आप कुछ भी नहीं करते समर्पण हो जाता है। क्योंकि फिर होगा क्या? समर्पण किया नहीं जा सकता, आप कुछ भी न करें समर्पण हो जाता है। कुछ भी न करने का अंतिम फल समर्पण है। और समर्पण भी किया तो चुक गए आप । यह इसको अगर हम ठीक से समझें, तो समर्पण मैं कर रहा हूं, मैं करूंगा, तो गड़बड़ हो गई सब। फिर समर्पण कैसे होगा ? नहीं, समझना यह है कि मैं समर्पित हूं, मैं समर्पित ही रहा हूं। उपाय क्या है? श्वास आपने ली है आज तक ? लेकिन हम रोज यही कहते हैं कि मैं श्वास ले रहा हूं। श्वास सिर्फ आती-जाती है, आपने कभी भी ली नहीं आज तक जिंदगी में, किसी आदमी ने श्वास ली ही नहीं कभी, सिर्फ आती जाती है।</p><p>क्योंकि अगर हम लेते होते, मौत दरवाजे पर आ जाती, हम कहते, थोड़ा ठहरो, अभी श्वास जारी रखते हैं। लेकिन हमें पता है कि मौत द्वार पर आई तो जो श्वास बाहर गई तो बाहर, फिर हम उसे भीतर भी न ला सकेंगे।</p><p>लेकिन जिंदगी भर कहते हम यही हैं कि मैं श्वास ले रहा हूं। बड़ी भूल की बात कहते हैं। सवाल यह है समझने का कि श्वास मैंने कभी ली है? सिर्फ आई गई है, मैं कहां हूं । न मैं जन्मा हूं, न मैं मरूंगा । जन्म भी हुआ है, मृत्यु भी होगी, श्वास भी चली है, विचार भी आए हैं, जीवन भी घटा है, जस्ट हैपेंड, हमने कुछ किया क्या है? यह बोध हमारे खयाल में आ जाए कि मेरे किए बिना सब हुआ है। यह समझ में आ जाए, तो अब मैं क्या करूं? मैं कुछ भी नहीं करता, जो हो रहा है, हो रहा है।</p><p>ऐसी स्थिति में समर्पण हो जाता है, वह आपको करना नहीं पड़ता, वह घट जाता है । और जब वह घटता है तब आप वापस नहीं लौटा सकते, क्योंकि आपने किया होता तो आप वापस लौटा सकते थे। आपने किया ही नहीं घट गया, आप उसे वापस नहीं लौटा सकते।</p><p><b><i> - ओशो </i></b></p></div>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-83757823864670131252023-10-14T18:54:00.007-07:002023-10-14T18:54:00.133-07:00 ध्यान बिना प्रयोजन के सिर्फ होने-मात्र से है - ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjjnFb__LMGiRUUmiXGbkjQqMNTKCAYMHoAdJuJF0M3tkdcqC7Pavr_dCYzUi27nvazUc77EztOvVgylOEh812SaIBbTCt6rAIFnztrJ_yzC5eAy3hTYT__FsTsiIk7I8IHK5inhSbvxwXJPbIda_5t4gbyE2cObd57PAr6s4KBZZEuRS58UIX8xxUftw/s800/Osho%20In%20Greese%20(54).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Meditation-is-just-being-without-purpose-Osho" border="0" data-original-height="532" data-original-width="800" height="426" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjjnFb__LMGiRUUmiXGbkjQqMNTKCAYMHoAdJuJF0M3tkdcqC7Pavr_dCYzUi27nvazUc77EztOvVgylOEh812SaIBbTCt6rAIFnztrJ_yzC5eAy3hTYT__FsTsiIk7I8IHK5inhSbvxwXJPbIda_5t4gbyE2cObd57PAr6s4KBZZEuRS58UIX8xxUftw/w640-h426/Osho%20In%20Greese%20(54).jpg" title="Meditation is just being without purpose - Osho" width="640" /></a></div><br /><p></p><h1 style="text-align: center;"> ध्यान बिना प्रयोजन के सिर्फ होने-मात्र से है - ओशो </h1><p>ध्यान हमारी जिंदगी में उस डायमेंशन, उस आयाम की खोज है, जहां हम बिना प्रयोजन के सिर्फ होने-मात्र में, __ जस्ट टु बी—होने-मात्र से आनंदित होते हैं। और जब भी हमारे जीवन में कहीं से भी सुख की कोई किरण उतरती है, तो वे, वे ही क्षण होते हैं, जब हम खाली, बिना काम के समुद्र के तट पर, या किसी पर्वत की ओट में, या रात आकाश के तारों के नीचे, या सुबह उगते सूरज के साथ, या आकाश में उड़ते हुए पक्षियों के पीछे, या खिले हुए फूलों के पास—कभी जब हम बिना काम, बिलकुल बेकाम, बिलकल व्यर्थ, बाजार में जिसकी कोई कीमत न होगी ऐसे किसी क्षण में होते हैं, तभी हमारे जीवन में सुख की थोड़ी सी ध्वनि उतरती है। लेकिन यह आकस्मिक, एक्सिडेंटल होती है। ध्यान, व्यवस्थित रूप से इस किरण की खोज है।</p><p><b><i>- ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1401467721222086337.post-64733400350125616432023-10-12T18:01:00.018-07:002023-10-12T18:01:00.134-07:00तो बैठें और शून्य हो जाएं, और जो होता है होने दें - ओशो <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkFS_2IfZd2B4pifyh26EGKfNm_nrGAgEWP-xRo_UMYKTq0HGSejromhjBm68kZQcc2Cuv4-kUIUglTnyg1e-JPyQBfscH--Pdk__7Pn-037gb13lCjTNswsAStaeq_G1Df11ubmKZfV4wRhd1vayNcEw_Gfw8h0qV9lpO93cz59XeEaROkVOQDeAlCA/s1024/Osho%20Rajneesh%20(199).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="So-sit-and-become-empty-and-let-what-happens-Osho" border="0" data-original-height="682" data-original-width="1024" height="426" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkFS_2IfZd2B4pifyh26EGKfNm_nrGAgEWP-xRo_UMYKTq0HGSejromhjBm68kZQcc2Cuv4-kUIUglTnyg1e-JPyQBfscH--Pdk__7Pn-037gb13lCjTNswsAStaeq_G1Df11ubmKZfV4wRhd1vayNcEw_Gfw8h0qV9lpO93cz59XeEaROkVOQDeAlCA/w640-h426/Osho%20Rajneesh%20(199).jpg" title="So sit and become empty, and let what happens - Osho" width="640" /></a></div> <p></p><div><br /></div><h1 style="text-align: center;">तो बैठें और शून्य हो जाएं, और जो होता है होने दें - ओशो </h1><p></p><p><br /></p><p>हां, अमेरिका में एक नया, चित्रकारों का एक मोमेंट है, उसको वे कहते हैं हैपनिंग | चित्रों की प्रदर्शनी करते हैं, अगर सौ चित्र प्रदर्शनी में लगाए गए हैं, तो दर्शक देखने आएंगे। तो हर चित्र के बगल में एक खाली कैनवस भी लगाते हैं, और खाली कैनवस के नीचे रंग व ब्रश भी रखे रहते हैं । फिर दर्शक देख रहे हैं, देख रहे हैं, देख रहे हैं और किसी दर्शक को एकदम लगा और उसने ब्रश उठाया, और उस खाली कैनवस पर कुछ पेंट किया, पेंट किया। फर्क यही है कि अपनी तरफ से पेंट मत करना, क्योंकि अपनी तरफ से करोगे तो वह बेकार हो गया। होने देना, उस सिचुएशन में अगर ऐसा पकड़ जाए और होने लगे पेंट तो होने देना, रोकना भी मत । तो उसको वे हैपनिंग पेंटिंग कहते हैं, वह किसी ने बनाई नहीं उस पर किसी का नाम नहीं होता फिर, वह घटी, वह घट गई।</p><p>ईसाइयों में एक साधकों का संप्रदाय है क्वेकर । क्वेकरों की जो बैठक होती है, उस बैठक में कोई बोलने के लिए निमंत्रित नहीं होता, कोई बोलने वाला नहीं होता, बैठक भर होती है, इकट्ठे होते हैं, बैठ जाते हैं। नियम यह है कि अगर किसी को कभी बोलने जैसा हो जाए, तो वह खड़ा हो जाए और बोलने लगे, बाकि लोग सुनेंगे बिना कोई धन्यवाद दिए, फिर विदा हो जाएंगे।</p><p>कई बार ऐसा होता है कि महीनों बीत जाते हैं कोई नहीं बोलता । क्योंकि नियम का खयाल यह है, अपनी तरफ से बोलना ही मत, अगर ऐसा जरा भी लगे कि मैं बोल रहा हूं, फिर बोलना ही मत । क्योंकि वह पाप हो गया। हां, ऐसा लगे कि परमात्मा बोल रहा है, मैं हूं नहीं, ऐसा किसी दिन लगे तो खड़े हो जाना, बोल देना, हम सुन लेंगे और विदा हो जाएंगे। तो कई दफा महीनों बीत जाते हैं उनकी बैठक में बोलना नहीं होता। लोग आकर बैठते हैं— चुपचाप बैठे रहते हैं, बैठे रहते हैं, बैठे रहते हैं, फिर विदा हो जाते हैं। लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई खड़ा हो जाता है और बोलता है, वे जो रिकार्डस हैं उनके बोलने के वे बड़े अदभुत हैं। क्योंकि तब वह आदमी की भाषा नहीं होती, वह आदमी की बात ही नहीं, वह हैपनिंग हो रही है, उसकी प्रतीक्षा करनी पड़ती है।</p><p>तो बैठें और शून्य हो जाएं, और जो होता है होने दें। बाहर सड़क पर कुत्ते की आवाज होगी, हार्न बजेगा, बच्चे चिल्लाएंगे, सड़क चलेगी। आवाजें आएंगी आने दें, विचार चलेंगे आने दें, मन में भाव उठेंगे उठने दें, जो भी हो रहा है होने दें। आप कर्ता न रह जाएं आप बस साक्षी रह जाएं, देखते रहें, यह हो रहा है, यह हो रहा है, यह हो रहा है। यह हो रहा है देखते रहें, देखते रहें, देखते रहें इसी देखने में वह क्षण आ जाता है जब अचानक आप पाते हैं कि कुछ भी नहीं हो रहा, सब ठहरा हुआ है।</p><p>और तब वह आपका लाया हुआ क्षण नहीं है, और तब आप एकदम समर्पित हो गए हैं और आप उस मंदिर पर पहुंच गए, जिसको खोज कर आप कभी भी नहीं पहुंच सकते थे। और वह मंदिर आ गया सामने और द्वार खुल गया है। और ये परमात्मा के लिए लाखों बार सोचा था कि मिलना है, मिलना है, मिलना है, नहीं मिला था, उसे बिना सोचे वह सामने खड़ा है, वह मिल गया है। और जिस आनंद के लिए लाखों उपाय किए थे और कभी उसकी एक बूंद न गिरी थी, आज उसकी वर्षा हो रही है और बंद नहीं होती । और जिस संगीत के लिए प्राण प्यासे थे वह अब चारों तरफ बज रहा है और बंद नहीं होता।</p><p>यह घटना घटती है, यह आपके घटाए नहीं घट सकती है। इसलिए आप अपने को हटा लेना और घटना को घटने देना । अपने को हटा लेना, अपने को बीच में खड़ा मत करना । आप हट ही जाना और घटना को घटने देना। बस इसको ही मैं भक्त का भाव कहता हूं या साधक की चेष्टा कहता हूं। कहना नहीं चाहिए क्योंकि चेष्टा नहीं है यह, लेकिन भाषा में कोई और उपाय नहीं है।</p><p><b><i> - ओशो </i></b></p>K.Alokhttp://www.blogger.com/profile/03394881496858752190noreply@blogger.com0